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प्रवचनसार
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“इसप्रकार जो पुरुष - ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है' - यह निश्चय करके परद्रव्यरूप परिणमित नहीं होता; वही पुरुष जिसका परद्रव्य के साथ संपर्क रुक गया है और जिसकी पर्यायें स्वद्रव्य के भी भीतर प्रलीन हो गई हैं - ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध करता है; अन्य कोई पुरुष ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं करता।
अब इसी बात को स्पष्टरूप से विशेष समझाते हैं - जब जपाकुसुम की निकटता से उत्पन्न हुए उपराग (लालिमा) से रंजित परिणतिवाले स्फटिक मणि के समान अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म कीबन्धनरूप उपाधि की निकटतासे उत्पन्न उपरागसे रंजित परिणतिवाला मैं पर के द्वारा आरोपित विकारवाला होने से संसारी था; तब भी मेरा कोई संबंधी नहीं था। त्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिप्रधावितोपरागरञ्जितात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव परारोपितविकारोऽहमासंसंसारी, तदापिन नाम मम कोऽप्यासीत् । तदाप्यहमेक एवोपरक्तचित्स्वभावेन स्वतंत्र: कर्ता सम् अहमकएवोपरक्तचित्स्वभावेन साधकतमः करणमासम्, अहमेक एवोपरक्त चित्परिणमन स्वभावनात्मना प्राप्य: कर्मासम्, अहमेक एव चोपस्क्तचित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यं विपर्ययस्तलक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम्। __इदानीं पुनरनादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसन्निधिध्वंसविस्फुरितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिर्जपापुष्पसंनिधिध्वंसविस्फुरितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपितविकारोऽहमेकान्तेनास्मि मुमुक्षुः, इदानीमपिन नाम मम कोऽप्यस्ति, इदानीमप्यहमेक एव सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतंत्रः कर्तास्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्स्वभावेन साधकतम: करणमस्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावेनात्मना प्राप्यः कर्मास्मि, अहमक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलत्वलक्षण सौख्याख्यं कर्मफलमस्मि।
मैं अकेला ही कर्ता था, क्योंकि मैं अकेला ही उपरक्त चैतन्यरूप स्वभाव से स्वतंत्र था: मैं अकेला ही करण था, क्योंकि मैं अकेलाही उपरक्त चैतन्यरूपस्वभाव के द्वारा साधकतम था; मैं अकेलाहीकर्म था, क्योंकि मैं अकेलाही उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव के कारण आत्मा से प्राप्य अर्थात् प्राप्त होने योग्य था और मैं अकेला ही सुख से विपरीत लक्षणवाला दुख नामक कर्मफल था, जो कि उपरक्त चैतन्यरूप परिणमित होने के स्वभाव से उत्पन्न किया जाता था।