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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
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यहाँ इस बात का ध्यान सदा रखना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो सकते हैं, मतभेद खड़े हो सकते हैं। अत: यही ठीक है कि जहाँ जो बात जिस अपेक्षा से कही गई है, वहाँ वही अपेक्षा लगाकर समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।।१२५।।
यह १२६वीं गाथा द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार के उपसंहार की गाथा है। इसकी उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार ज्ञेयपने को प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि होती है; इसप्रकार उसका अभिनन्दन करते हुए द्रव्यसामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हैं। __ आत्मा ज्ञानरूप भी है और ज्ञेयरूप भी है। ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन में आत्मा के ज्ञानस्वभाव को स्पष्ट किया गया है और यहाँ उसके ज्ञेयस्वभाव को समझाया जा रहा है।
अथैवमात्मनो ज्ञेयतामापन्नस्य शुद्धत्वनिश्चयात् ज्ञानतत्त्वसिद्धौ शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भो भवतीति तमभिनन्दन् द्रव्यसामान्यवर्णनामुपसंहरति
कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ।।१२६।।
कर्ता करणं कर्म कर्मफलं चात्मेति निश्चित: श्रमणः।
परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मानं लभते शुद्धम् ।।१२६।। यो हिनामैवं कर्तारं करणं कर्म कर्मफलं चात्मानमेव निश्चित्य न खलु परद्रव्यं परिणमति स एव विश्रान्तपरद्रव्यसंपर्कं द्रव्यान्त:प्रलीनपर्यायं च शुद्धमात्मानमुपलभते, न पुनरन्यः।
तथा हि-यदानामानादिप्रसिद्धपौद्गलिककर्मबन्धनोपाधिसंनिधिप्रधावितोपरागरंजिता
यहाँ इस द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनाधिकार में आत्मा के ज्ञेयत्व के सामान्य स्वरूप को बताया है। आगे के द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार में अन्य द्रव्यों के साथ-साथ आत्मा के ज्ञेयत्व के विशेष स्वरूप को समझायेंगे। इस उपसंहार की गाथा में तो मात्र यह बताते हैं कि आत्मा के ज्ञेयतत्त्व के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) जो श्रमण निश्चय करे कर्ता करम कर्मरु कर्मफल |
ही जीव ना पररूप हो शुद्धात्म उपलब्धि करे||१२६।। 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्माही है'-ऐसा निश्चयवाला होता हआश्रमण यदिअन्यरूप परिणमित हीन हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।