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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
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आत्मा का मनुष्यादि पर्यायों में रहने से पराभव नहीं होता।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि पराभव का मूल कारण क्या है ?
इस प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव ने पानी के पूर का उदाहरण दिया है। हिमालय से निकला हुआ पानी निर्मल होता है; परंतु वह बहते-बहते जंगल में बहुत सारे नीम, चंदनादि पेड़ों से गुजरता है। वह चंदन के वन में से निकलता है तो सुगंधित हो जाता है और वह नीम के वृक्षों में से निकलता है तो कड़वा हो जाता है। इसमें उस पानी की मूल गंध नहीं रहती और न ही उसका मूल स्वभाव रहता है। इसप्रकार उस पानी का पराभव हुआ; क्योंकि उसका मूलस्वभाव तिरोहित हो गया है। अथ जीवस्य द्रव्यत्वेनावस्थितत्वेऽपिपर्यायैरनवस्थितत्वं द्योतयति -
जायदि णेव ण णस्सदि खणभंगसमुन्भवेजणे कोई।
जो हि भवो सो विलओ संभवविलय त्ति ते णाणा॥११९।। इसीप्रकार इस आत्मा का पराभव इस मनुष्य पर्याय में जुड़ जाने से है। यह आत्मा मोहराग-द्वेषभावों में से निकला है; इसलिए इसका पराभव हुआ है। ध्यान रहे आचार्यदेव ने यहाँ संयोग पर अपराध नहीं मड़ा है।
आचार्यदेव यहाँ कह रहे हैं कि पानी, नीम में अथवा चन्दन के वृक्ष में चढ़ा हुआ है अर्थात् नीम और चन्दन में भी पानीपन है, गीलापन है। यदि हम नीम की पत्तियों का रस निकालें, चन्दन का रस निकालें तो इसमें उसने तीन चीजें खोई हैं। पानी ने अपना स्वाद खोया है, अपनी गंध खोई है और प्रवाही स्वभाव खोया है; क्योंकि वह पानी वृक्ष में गया और उसी में रम गया। पानी का जो बहना स्वभाव था, वह बंद हो गया; जितना पानी उन वृक्षों ने सोख लिया, उस पानी का प्रवाही स्वभाव समाप्त हो गया। पानी का मूल स्वाद नहीं रहा, नीम के संयोग से कड़वा हो गया । इसीप्रकार गंध में भी परिवर्तन हो जाता है।
उसीप्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्मरूप परिणमित होने से अमूर्तत्व से मूर्तत्व हो गया; तब वह अमूर्तत्व, निरुपराग विशुद्धिमत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता। यही इस जीव की समस्या का मूल कारण है। - इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि आत्मस्वभाव के पराभव का कारण शरीरादि का संयोग नहीं है; अपितु शरीरादि संयोगों में आत्मा का अपनापन है, उन्हें अपना जानना-मानना है, उन्हीं से जुड़ जाना है, उन्हीं में रमजाना है।
इसप्रकार इस गाथा और इसकी टीकाओं में सोने में जड़े हुए माणिक और पानी के पूर