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प्रवचनसार
विगत गाथा में यह कहा है कि कर्म जीव के स्वभाव का पराभव करके मनुष्यादि पर्यायों को उत्पन्न करते हैं और अब इस गाथा में यह स्पष्ट कर रहे हैं कि मनुष्यादि पर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव कैसे होता है? गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) नाम नामक कर्म से पशु नरक सुर नर गती में।
स्वकर्म परिणत जीव को निजभाव उपलब्धि नहीं।।११८|| मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप जीव वस्तुत: नामकर्म से निष्पन्न हैं। वे अपने कर्मरूप से परिणमित होते हैं, इसलिए उन्हें स्वभाव की उपलब्धि नहीं है।
अमी मनुष्यादयः पर्याया नामकर्मनिर्वृत्ताः सन्ति तावत्; न पुररेतावतापि तत्र जीवस्य स्वभावाभिभवोऽस्ति, यथा कनकबद्धमाणिक्यकङ्कणेषु माणिक्यस्य । यत्तत्र नैव जीव: स्वभावमुपलभते तत् स्वकर्मपरिणमनात् पयःपूरवत् । यथा खलु पयःपूरः प्रदेशस्वादाभ्यां पिचुमन्दचन्दनादिवनराजी परिणमन्न द्रव्यत्वस्वादु-त्वस्वभावमुपलभते; तथात्मापि प्रदेशभावाभ्यांकर्मपरिणमनान्नामूर्तत्वनिरुपरागविशुद्धिमत्त्वस्वभावमुपलभते।।११८।। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जिसप्रकार कनकबद्ध (सुवर्ण में जड़े हुए) माणिक के कंगनों में माणिक के स्वभाव का पराभव नहीं होता; उसीप्रकार ये मनुष्यादिपर्यायें नामकर्म से निष्पन्न हैं; किन्तु इतने से भी वहाँजीव के स्वभाव का पराभव नहीं है। पानी के पूर कीभांति स्वकर्मरूप परिणमित होने से जीव स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता, स्वभाव का अनुभव नहीं करता।
जिसप्रकार पानीका पूर प्रदेश से और स्वाद से निम्बचन्दनादिवनराजिरूप (नीम, चन्दन इत्यादिवृक्षों की लम्बी पंक्तिरूप) परिणमित होता हुआ अपने द्रवत्व और स्वादरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता; उसीप्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्मरूप परिणमित होने से (अपने) अमूर्तत्व और निरुपराग विशुद्धिमत्वरूपस्वभाव कोउपलब्ध नहीं करता।"
यहाँ आचार्यदेव ने 'माणिक की भाँति' एवं 'पानी के पूर की भाँति' - इसप्रकार दो उदाहरण दिए हैं।
माणिक को सोने में जड़ दो तो माणिक का पराभव नहीं होता है। सोना भी दिखता रहता है और माणिक भी दिखता रहता है। इसीप्रकार मनुष्यपर्याय में भगवान आत्मा मानो सोने में जड़ा हुआ माणिक है; उसमें मनुष्य पर्याय और भगवान आत्मा दोनों पृथक्-पृथक् चमक रहे हैं।
जिसप्रकार सोने में जड़ने से माणिक का पराभव नहीं होता है; उसीप्रकार भगवान