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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन: द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
असत् - उत्पाद है - यह बात निर्दोष है । "
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - “जिससमय द्रव्यार्थिकनय से देखते हैं तो यह स्पष्ट ही है कि कड़े में जो सोना है, कंकण में भी वही सोना है; इसकारण सत्-उत्पाद कहा जाता है और जब पर्यायार्थिकनय से देखते हैं तो कंकण पर्याय जो अभी उत्पन्न हुई है, वह पहले नहीं थी; अत: यह असत् - उत्पाद है । "
इसी बात को स्पष्ट करने के लिए वे गृहत्याग और मुनिदीक्षा का भी उदाहरण देते हैं। इसप्रकार यह स्पष्ट हुआ कि पर्यायदृष्टि से देखने पर असत् का उत्पाद हुआ है और द्रव्यदृष्टि से देखने पर सत् का उत्पाद हुआ है ।। १११ ।।
अथ सदुत्पादमनन्यत्वेन निश्चिनोति । अथासदुत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोति – वो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो ।
किं दव्वत्तं पजहदि ण जहं अण्णो कहं होदि । ।११२ ।। वो ण होदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा । एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कथं लहदि । । ११३ ।। जीवो भवन् भविष्यति नरोऽमरो वा परो भूत्वा पुनः । किं द्रव्यत्वं प्रजहाति न जहदन्यः कथं भवति ।। ११२ । । मनुजो न भवति देवो देवो वा मानुषो वा सिद्धो वा । एवमभवन्ननन्यभावं कथं लभते ।। ११३ ।। द्रव्यं हि तावद्द्रव्यत्वभूतामन्वयशक्तिं नित्यमप्यपरित्यजद्भवति सदेव । यस्तु द्रव्यस्य १११वीं गाथा में सत्-उत्पाद और असत् - उत्पाद में कोई विरोध नहीं है - यह सिद्ध किया गया; अब इन ११२ व ११३वीं गाथाओं में सत् - उत्पाद को अनन्यत्व के द्वारा तथा असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
परिणमित जिय नर देव हो या अन्य हो पर कभी भी ।
द्रव्यत्व को छोड़े नहीं तो अन्य होवे किसतरह ॥ ११२ ॥
मनुज देव नहीं है अथवा देव मनुजादिक नहीं ।
ऐसी अवस्था में कहो कि अनन्य होवे किसतरह ॥११३॥
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परिणमित होता हुआ जीव, मनुष्य, देव या अन्य तिर्यंच, नारकी या सिद्ध होगा; परन्तु क्या वह मनुष्यादिरूप होने से जीवत्व को छोड़ देगा ? नहीं, कदापि नहीं; तो फिर वह अन्य