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प्रवचनसार
द्रव्य ही है भाव इससे द्रव्य सत्ता है स्वयं ॥ ११० ॥
इस विश्व में द्रव्य से पृथक् गुण या पर्यायें नहीं होतीं । द्रव्यत्व ही भाव है अर्थात् अस्तित्व गुण है; इसलिए द्रव्य स्वयं सत्ता ही है ।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं“जिसप्रकार पीलापन और कुण्डलादि सोने से पृथक् नहीं होते; उसीप्रकार गुण और पर्यायें द्रव्य से पृथक् नहीं होतीं । द्रव्य के स्वरूप का वृत्तिभूत अस्तित्व नाम से कहा जानेवाला द्रव्यत्व; द्रव्य का भाव नाम से कहा जानेवाला गुण होने से क्या वह अस्तित्व द्रव्य से पृथक् होगा ? नहीं होगा; तो फिर द्रव्य स्वयं ही सत्ता क्यों न हो ? तात्पर्य यह है कि द्रव्य स्वयं सत्तास्वरूप ही है। "
अथ द्रव्यस्य सदुत्पादासदुत्पादयोरविरोधं साधयति -
एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं । सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि । ।१११ ।। एवंविधं स्वभावे द्रव्यं द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् । सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भावं सदा लभते ।। १११ ।। एवमेतद्यथोदितप्रकारसाकल्याकलङ्कलाञ्छनमनादिनिधनं सत्स्वभावे प्रादुर्भावमास्कन्दति द्रव्यम् । स तु प्रादुर्भावो द्रव्यस्य द्रव्याभिधेयतायां सद्भावनिबद्ध एव स्यात्; त्वसद्भावनिबद्ध एव ।
पर्यायाभिधेयतायां
इस गाथा में सोने का उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि सत्ता गुण और सत् द्रव्य - ये अनन्य ही हैं; अन्य-अन्य नहीं ।। ११० ।।
विगत गाथा में गुण-गुणी में अनेकत्व का निषेध कर एकता स्थापित की है और अब इ गाथा में यह बताते हैं कि द्रव्य के सत् - उत्पाद और असत् - उत्पाद में कोई विरोध नहीं है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
पूर्वोक्त द्रव्यस्वभाव में उत्पाद सत् नयद्रव्य से ।
पर्यायनय से असत् का उत्पाद होता है सदा ॥ १११ ॥
ऐसा द्रव्य द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के द्वारा स्वभाव में सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पाद को सदा प्राप्त करता है ।
सत् अर्थात् जो वस्तु पहले से ही विद्यमान हो, उसके उत्पाद को सत् - उत्पाद कहते हैं