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प्रवचनसार
३. द्रव्य या सत्ता गुण को परस्पर में एक-दूसरे के अभावरूप स्वीकार करने पर अपोहता अर्थात् सर्वथा पूर्णत: अभावात्मकता (शून्यता) आ जावेगी।
तात्पर्य यह है कि द्रव्य और गुण मात्र अभावरूप (निगेटिव) ही रहेंगे, उनका कोई भावात्मक (पॉजिटिव) स्वरूप नहीं रहेगा। इसलिए यही ठीक है कि हम द्रव्य और सत्ता गुण को पृथक्-पृथक् तो न माने, पर अन्य-अन्य तो मानना ही चाहिए। इसप्रकार इन दोनों में कथंचित् भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता सिद्ध होती है।।१०८||
विगत गाथा में यह बताया गया है कि सर्वथा अभाव का नाम अतद्भाव नहीं है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि सत्ता (अस्तित्व) गुण है और द्रव्य गुणी है - इसप्रकार इनमें गुणगुणी का संबंध है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथ सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिभावं साधयति -
जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो। सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति जिणोवदेसोयं ।।१०९।।
यः खलु द्रव्यस्वभावः परिणाम: सगुणः सदविशिष्टः ।
सदवस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोऽयम् ।।१०९।। द्रव्यं हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति प्राक् प्रतिपादितम् । स्वभावस्तु द्रव्यस्य परिणामोऽभिहितः । य एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः, स एव सदविशिष्टो गुण इतीह साध्यते। यदेव हि द्रव्यस्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वं द्रव्यप्रधान निर्देशात्सदिति संशब्द्यते तदविशिष्टगुणभूत एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः द्रव्यवृत्तेहि त्रिकोटिसमयस्पर्शिन्या: प्रतिक्षणं तेन तेन स्वभावेन परिणमनाद् द्रव्यस्वभावभूत एव तावत्परिणामः।।
सत्वस्तित्वभूतद्रव्यवृत्त्यात्मककत्वात्सदविशिष्टोद्रव्यविधायकोगुण एवेति सत्ताद्रव्ययोगुणगुणिभावः सिद्धयति ।।१०९।।
(हरिगीत) परिणाम द्रव्य स्वभाव जो वह अपृथक् सत्ता से सदा।
स्वभाव में थित द्रव्य सत् जिनदेव का उपदेश यह||१०९|| जो द्रव्य का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वभावभूत परिणाम है; वह परिणाम सत्ता से अभिन्न गुण है। स्वभाव में स्थित होने से द्रव्य सत् है- ऐसा जिनदेव का उपदेश है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार व्यक्त करते हैं"स्वभाव में अवस्थित होने से द्रव्य सत् है - ऐसा पहले (९९वीं गाथा में) कहा है और