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प्रवचनसार
अंकुर के आश्रित है और ध्रौव्य वृक्षत्व के आश्रित है। नाश, उत्पाद और ध्रौव्य बीज, अंकुर
और वृक्षत्व से भिन्न पदार्थरूप नहीं है तथा बीज, अंकुर और वृक्षत्व भी वृक्ष से भिन्न पदार्थरूप नहीं है। इसलिए यह सब एक वृक्ष ही हैं।
इसीप्रकार नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव और ध्रौव्य भाव - ये सब द्रव्य के अंश हैं। नष्ट होते हुए भाव का नाश, उत्पन्न होते हुए भाव का उत्पाद और स्थायी भाव का ध्रौव्य एक ही साथ हैं। इसप्रकार नाश, नष्ट होते भाव के आश्रित है, उत्पाद, उत्पन्न होते भाव के आश्रित है और ध्रौव्य, स्थायी भाव के आश्रित है।
नाश, उत्पाद और ध्रौव्य उन भावों से भिन्न पदार्थरूप नहीं है और वे भाव भी द्रव्य से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं। इसलिए यह सब एक द्रव्य ही हैं।"
उत्पाद, व्यय और धुवत्व का एकत्व आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त टीका में बीज, अंकुर अथोत्पादादीनां क्षणभेदमुदस्य द्रव्यत्वं द्योतयति -
समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदढेहिं। एक्कम्मि चेव समये तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं ।।१०२।।
समवेतं खलु द्रव्यं संभवस्थितिनाशसंज्ञितार्थैः ।
एकस्मिन् चैव समये तस्माद्रव्यं खलु तत्रितयम् ।।१०२।। इह हि यो नाम वस्तुनो जन्मक्षण: स जन्मनैव व्याप्तत्वात् स्थितिक्षणो नाशक्षणश्च न और वृक्षत्व के उदाहरण से समझाया है; किन्तु आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में स्वसंवेदनज्ञान के उत्पाद, अज्ञान पर्याय के व्यय और दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की स्थिति पर घटित करके समझाते हैं। अन्त में यह कहते हैं कि अन्वयद्रव्यार्थिकनय से ये सभी द्रव्य हैं। इसप्रकार वे नामोल्लेखपूर्वक नय का उल्लेख भी कर देते हैं।
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों के ही होते हैं, द्रव्य के नहीं; क्योंकि द्रव्य तो अनादि-अनंत ध्रुव पदार्थ है; उसका उत्पाद और नाश कैसे संभव है ? हाँ, यह बात अवश्य है कि उत्पादादि की आधारभूत पर्यायें द्रव्य की ही हैं; इसकारण ये सब द्रव्य ही हैं।।१०१।।
१००वीं गाथा में उत्पाद, व्यय बिना नहीं होता; व्यय, उत्पाद बिना नहीं होता और उत्पाद-व्यय, ध्रुवत्व बिना नहीं होते; इसप्रकार इनमें वस्तुभेद नहीं हैं - यह बताया है। १०१वीं गाथा में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्यायें द्रव्य में होती हैं; अत: वे सभी द्रव्य हैं, द्रव्यान्तर नहीं - यह बताया है और अब इस १०२वीं गाथा में यह बताया जा