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प्रवचनसार
___ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में मिट्टी के पिण्ड और घड़े का उदाहरण न देकर मिथ्यात्व के अभाव और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के उदाहरण के माध्यम से इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हैं। इसप्रकार इस गाथा में यही बताया गया है कि सत्; उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक ही होता है; अत: ये तीनों प्रत्येक वस्तु में एक समय में एकसाथ ही होते हैं।।१००।।
विगत गाथाओं में यह बताया गया है कि सत्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है और वह सत् ही द्रव्य का लक्षण है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों एक समय में, एक ही द्रव्य में एक साथ ही होते हैं और अब इस १०१वीं गाथा में यह बताया जा रहा है कि ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - तीनों एक द्रव्य ही हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) पर्याय में उत्पाद-व्यय-धव दव्य में पर्यायें हैं। बस इसलिए तो कहा है कि वे सभी इक द्रव्य हैं।।१०१|| उत्पादस्थितिभङ्गा विद्यन्ते पर्यायेषु पर्यायाः।
द्रव्ये हि सन्ति नियतं तस्माद्रव्यं भवति सर्वम् ।।१०१।। उत्पादव्ययध्रौव्याणि हि पर्यायानालम्बन्ते, ते पुनः पर्यायाद्रव्यमालम्बन्ते। ततः समस्तमप्येतदेकमेव द्रव्यं न पुनद्रव्यान्तरम् । __द्रव्यं हि तावत्पर्यायैरालम्ब्यते, समुदायिन: समुदायात्मकत्वात् पादपवत्। यथा हि समुदायी पादप: स्कन्धमूलशाखासमुदायात्मकः स्कन्धमूलशाखाभिरालम्बित एव प्रतिभाति, तथा समुदायि द्रव्यं पर्यायसमुदायात्मकं पर्यायैरालम्बितमेव प्रतिभाति । पर्यायास्तूत्पादव्ययध्रौव्यरालम्ब्यन्ते उत्पादव्ययध्रोव्याणामंशधर्मत्वात् बीजाकुरपादपत्ववत्।
यथा किलाशिनः पादपदस्य बीजाङकुरपादपत्वलक्षणास्त्रयोंऽशा भङ्गोत्पादध्रौव्यलक्षणैरात्मधर्मैरालम्बिता: सममेव प्रतिभान्ति, तथांशिनोद्रव्यस्योच्छिद्यमानोत्पद्यमानावतिष्ठमानभावलक्षणास्त्रयोंऽशाभङ्गोत्पादध्रौव्यलक्षणैरात्मधर्मैरालम्बिताः सममेव प्रतिभान्ति।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्यायें द्रव्य में होती हैं - यह नियम है; इसलिए ये सब द्रव्य ही हैं।
आचार्य अमतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों के आश्रय से हैं और पर्यायें द्रव्य के आश्रय से हैं: इसलिए यह सब द्रव्य ही हैं. द्रव्यान्तर नहीं।
प्रथम तो पर्यायें द्रव्याश्रित हैं; क्योंकि वृक्ष की भाँति समुदायी समुदाय-स्वरूप होता है। जिसप्रकार समुदायी वृक्ष; स्कन्ध, मूल और शाखाओं का समुदायरूप होने से स्कन्ध, मूल