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प्रवचनसार
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत) भंगबिन उत्पाद ना उत्पाद बिन ना भंग हो।
उत्पाद-व्यय हो नहीं सकते एक ध्रौव्य पदार्थ बिन ||१००|| उत्पाद, भंग (व्यय) बिना नहीं होता और भंग, उत्पाद बिना नहीं होता तथा उत्पाद और व्यय, ध्रौव्य के बिना नहीं होते। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“वस्तुत: बात यह है कि सर्ग (उत्पाद) संहार (व्यय) के बिना नहीं होता और संहार सर्ग के बिना नहीं होता। इसीप्रकार सृष्टि (उत्पाद) और संहार, स्थिति (ध्रौव्य) के बिना नहीं होते और स्थिति, सर्ग और संहार के बिना नहीं होती। अधिक क्या कहें - जो सर्ग है,
तथाहि - य एव कुम्भस्य सर्गः, स एव मृत्पिण्डस्य संहारः; भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनावभासनात् । य एव च मृत्पिण्डस्य संहारः, स एव कुम्भस्य सर्गः, अभावस्य भावान्तरभावस्वभावेनावभासनात्।
यौ च कुम्भपिण्डयो: सर्गसंहारौ सैवमृत्तिकाया: स्थितिः, व्यतिरेकमुखेनैवान्वयस्य प्रकाशनात् । यैव च मृत्तिकाया: स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारी, व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात्।
यदि पुनर्नेदमेवमिष्येत तदान्यः सर्गोऽन्यः संहारः अन्या स्थितिरित्यायति । तथा सति हि केवलं सर्ग मृगयमाणस्य कुम्भस्योत्पादन कारणाभावादभवनिरेव भवेत्, असदुत्पाद एव वा। तत्र कुम्भस्याभवनो सर्वेषामेव भावानामभवनिरेव भवेत् । असदुत्पादेवाव्योमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात्।
तथा केवलं संहारमारभमाणस्य मृत्पिण्डस्य संहारकारणाभावादसंहरणिरेव भवेत्, सदुच्छेद एव वा । तत्र मृत्पिण्डस्यासंहरणौ सर्वेषामेव भावानामसंहरणिरेव भवेत् । सदुच्छेदे वा संविदादीनामप्युच्छेदः स्यात् । वही संहार है; जो संहार है, वही सर्ग है; जो सर्ग और संहार हैं, वही स्थिति है तथा जो स्थिति है, वही सर्ग और संहार हैं। __ अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं - जो कुंभ का सर्ग है, वह मृत्तिकापिंड का संहार है; क्योंकि भाव का भावान्तर के अभावस्वभाव से अवभासन है। तात्पर्य यह है कि भाव अन्यभाव के अभावरूप ही होता है।
जो मृत्तिकापिंड का संहार है, वह कुंभ का सर्ग है; क्योंकि अभाव का भावान्तर