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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
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ही चला जा सकता है; उसीप्रकार उन पर चढने का कालक्रम भी है।
जिसप्रकार जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं, उतने ही एक जीव के प्रदेश हैं; उसीप्रकार तीनकाल के जितने समय हैं, उतनी ही प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें हैं। एक-एक समय की एक-एक पर्याय निश्चित है। जिसप्रकार लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु खचित है; उसीप्रकार तीनों काल के एक-एक समय में प्रत्येक द्रव्य की एक-एक पर्याय खचित है। गुणों की अपेक्षा से विचार करें तो तीनों कालों के एक-एक समय में प्रत्येक गुण की एक-एक पर्याय भी खचित है।
इसप्रकार जब प्रत्येक पर्याय स्वसमय में खचित है, निश्चित है; तो फिर उसमें अदलाबदली का क्या काम शेष रह जाता है ? इस सन्दर्भ में टीका में समागत यह वाक्य भी ध्यान देने योग्य है कि प्रत्येक परिणाम अपने-अपने अवसर पर ही प्रगट होता है।' अथोत्पादव्ययध्रौव्याणां परस्पराविनाभावं दृढ़यति -
ण भवो भंगविहीणो भंगो वाणत्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥१००।
न भवो भङ्गविहीनो भङ्गो वा नास्ति संभवविहीनः ।
उत्पादोऽपि च भङ्गो न विना ध्रौव्येणार्थेन ।।१००।। न खलु सर्गः संहारमन्तरेण, न संहारो वा सर्गमन्तरेण, न सृष्टिसंहारौ स्थितिमन्तरेण, न स्थितिः, सर्गसंहारमन्तरेण । य एव हि सर्गः स एव संहारः, य एव संहारः स एव सर्गः; यावेव सर्गसंहारौ सैव स्थिति:, यैव स्थितिस्तावेव सर्गसंहाराविति।
इन सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस समय, जिस कारण से होनी है। वह तदनसार ही होती है।'
इसप्रकार इस गाथा में यही बताया गया है कि प्रत्येक पदार्थ का प्रदेशक्रम और पर्यायक्रम पूर्णतः सुनिश्चित है। यदि इस सन्दर्भ में विशेष जिज्ञासा हो तो लेखक की अन्य कृति क्रमबद्धपर्याय का स्वाध्याय करना चाहिए ।।९९ ।।
विगत गाथा में यह बताया गया है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य का स्वभाव है; अब इस १००वीं गाथा में यह बताया जा रहा है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में अविनाभाव है। तात्पर्य यह है कि ये तीनों एक साथ ही रहते हैं; एक के बिना दूसरा नहीं रहता। १. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : क्रमबद्धपर्याय, पृष्ठ २२-२४