________________
२०६
उन्मन - निमग्न होता है ।
जब पर्यायार्थिकनय से देखा जाय, तब ही 'यह शुक्ल वस्त्र है, इसका शुक्लत्व गुण है' इसप्रकार गुणवाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है - इसप्रकार अताद्भाविक भेद उन्मन (उदित) होता है; परन्तु जब द्रव्यार्थिकनय से देखा जाय, तब जिसके समस्त गुणवासना के उन्मेष अस्त हो गये हैं - ऐसे उस जीव को 'शुक्ल वस्त्र ही है' इत्यादि की भाँति ऐसा द्रव्य ही है' - इसप्रकार देखने पर अताद्भाविक भेद समूल ही निमग्न (अस्त) हो जाता है ।
प्रवचनसार
उसके निमग्न होने पर अयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरपना निमग्न होता है; इसलिए समस्त ही एक द्रव्य होकर रहता है ।
जब भेद उन्मग्न होता है तो उसके आश्रय से उत्पन्न होती हुई प्रतीति उन्मग्न होती । सिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वमुन्मज्जति । तदापि तत्पर्यायत्वेनोन्मज्जज्जलराशेर्जलकल्लोल इव द्रव्यान्न व्यतिरिक्तं स्यात् । एवं सति स्वयमेव सद्द्रव्यं भवति । यस्त्वेवं नेच्छति स खलु परसमय एव
द्रष्टव्यः ।। ९८ ।।
अथोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वेऽपि सद्द्रव्यं भवतीति विभावयति -
सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ।। ९९ ।।
उसके उन्मग्न होने पर अयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरपना उन्मग्न होता है; तब भी द्रव्य के पर्यायरूप से उन्मग्न होने से, जिसप्रकार जलराशि से जलतरंगे व्यतिरिक्त (भिन्न) नहीं हैं; उसीप्रकार द्रव्य से गुण व्यतिरिक्त नहीं हैं । इससे यह निश्चित हुआ कि द्रव्य स्वयमेव सत् है । जो ऐसा नहीं मानता, वह वस्तुत: परसमय (मिथ्यादृष्टि ) ही है । "
इसप्रकार इस गाथा में यह बताया गया है कि प्रत्येक पदार्थ अनादि से है और अनन्त काल तक रहेगा। उसे न तो किसी ने बनाया है और न ही कोई उसका नाश कर सकता है। वस्तुत: बात यह है कि द्रव्य की तो उत्पत्ति ही नहीं होती। जो उत्पन्न और नष्ट होती हैं, वे तो पर्यायें हैं ।
सत् अर्थात् सत्ता द्रव्य का लक्षण है और वह द्रव्य स्वतः सिद्ध है । वह सत् अर्थात् सत्ता द्रव्य से कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न है । द्रव्यार्थिक नय से अभिन्न है और पर्यायार्थिक नय से भिन्न है । जो व्यक्ति उक्त वस्तुस्वरूप को स्वीकार नहीं करता; वह अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि परसमय है। इसप्रकार यहाँ यही स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक पदार्थ स्वभाव से सत् है और