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( हरिगीत )
स्वभाव से ही सिद्ध सत् जिन कहा आगमसिद्ध है । यह नहीं माने जीव जो वे परसमय पहिचानिये ||१८||
प्रवचनसार
'द्रव्य स्वभाव से सिद्ध और सत् है' - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जो इसे नहीं मानता, वह वस्तुत: परसमय है ।
गाथा में द्रव्य को स्वभाव से सत् और सिद्ध कहा है। इसमें 'सिद्ध' शब्द का अर्थ 'मुक्त' नहीं है; अपितु यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव से ही निर्मित है, वह किसी का निर्माण नहीं है अर्थात् किसी से निर्मित नहीं है। वह अनादि अनंत स्वत: सिद्ध अकृत्रिम पदार्थ है और उसका अस्तित्व भी स्वयं से ही है ।
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न खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भ:, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात्। अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते । गुणपर्यायात्मानमात्मनः स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्धसिद्धिमद्भूतं वर्तते ।
यत्तु द्रव्यैरारभ्यते न तद्द्रव्यान्तरं कादाचित्कत्वात् स पर्याय:; द्वयणुकादिवन्मनुष्यादिवच्च । द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात् ।
अथैवं यथा सिद्धं स्वभावत एव द्रव्यं तथा सदित्यपि तत्स्वभावत एव सिद्धमित्यवधार्यताम् । सत्तात्मनात्मनः स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भावयुक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् ।
सत: सत्तायाश्च न तावद्युतसिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं, तयोर्दण्डदण्डिवद्युतसिद्धस्यादर्शनात् अयुतसिद्धत्वेनापि न तदुपपद्यते ।
इहेदमितिप्रतीतेरुत्पद्यत इति चेत् किंनिबन्धना हीदमिति प्रतीतिः ।
इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“वस्तुत: बात यह है कि द्रव्यों से किसी अन्य द्रव्य का आरंभ (उत्पत्ति) नहीं होता; क्योंकि सभी द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध हैं; अनादिनिधन होने से सभी द्रव्यों का स्वभावसिद्धत्व सिद्ध ही है; क्योंकि अनादिनिधन पदार्थ अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखते। सभी पदार्थ मूल साधन के रूप में अपने गुण- पर्यायात्मक स्वभाव के कारण स्वयमेव सिद्ध हैं ।
जो द्रव्यों से उत्पन्न होते हैं, वे अन्य द्रव्य (द्रव्यांतर) नहीं हैं; सदा नहीं होने से, कभीकभी होने से वे तो द्विअणुक आदि व मनुष्यादि पर्यायों के समान पर्यायें हैं; क्योंकि द्रव्य तो