________________
१९४
प्रवचनसार
इसप्रकार हमने स्वरूपास्तित्व को छोड़ा नहीं है; पर हम सादृश्यास्तित्व में भी शामिल हैं। हम ऐसी महासत्ता के अंश हैं, जिसमें स्वरूपास्तित्व को छोड़ना जरूरी नहीं है। मैं अपने स्वरूपास्तित्व में भी शामिल हूँ और सादृश्यास्तित्व में भी शामिल हूँ।
| जीव द्रव्य सादृश्यास्तित्व एवं स्वरूपास्तित्व से युक्त हैं। सभी का अस्तित्व समान है। आप भी अनंतगुणवाले हो एवं मैं भी अनंतगुणवाला हूँ, पुद्गल भी अनंतगुणवाला है। आप भी गुणपर्याय से युक्त हैं एवं मैं भी गुणपर्याय से युक्त हूँ। महासत्ता की अपेक्षा हम, तुम - सभी एक हैं, एक से हैं; अत: इस अस्तित्व का नाम सादृश्यास्तित्व है।
अथ क्रमेणास्तित्वं द्विविधिमभिदधाति स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेति तत्रेदस्वरूपास्तित्वाभिधानम् -
सब्भावो हि सहावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं ।
दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं ।।९६।। सादृश्य अर्थात् एक-सा होना । एक से होने में भी जगत में ‘एक हैं' - ऐसा व्यवहार किया जाता है। हम सभी जैन एक हैं। हममें भी जैनत्व की श्रद्धा है और आपमें भी जैनत्व की श्रद्धा है। इसप्रकार हम कहना तो यही चाहते हैं कि हम एक से हैं।' परंतु सादृश्यास्तित्व की लोक में ऐसी भाषा है कि उसे एक हैं' - ऐसा ही कहा जाता है; क्योंकि यदि एक-सा' ऐसा कहते हैं तो उसमें भेद नजर आता है; परंतु एक ऐसा कहने में एकता नजर आती है। __ अत: हमें यह अपने ज्ञान में समझ लेना चाहिए कि हम जो ऐसा कह रहे हैं कि हम सब जैन एक हैं, हम सब भारतीय एक हैं - यह सब सादृश्यास्तित्व की विवक्षा से कहा जा रहा है।
यद्यपि हम सादृश्यास्तित्व की अपेक्षा से एक हैं; परंतु स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा से हम किसी से भी एक (अभेद) नहीं हैं। यह सादृश्यास्तित्व का जो कथन जिनागम में किया है, वह स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना है। हमने अपनी मान्यता में उस स्वरूपास्तित्व को छोड़कर पर के साथ एकत्व स्थापित कर लिया है - यही मिथ्यादर्शन है, यही पर्यायमूढ़ता है, परसमयपना है।
सादृश्यास्तित्व अर्थात् महासत्ता की अपेक्षा हम सब एक हैं। इसप्रकार परपदार्थों से हमारा हैं का सम्बन्ध है, अस्तित्व का संबंध है; परंतु इसमें प्रत्येक का अस्तित्व पृथक्पृथक् है- यही स्वरूपास्तित्व है।।९५||