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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : द्रव्यसामान्यप्रज्ञापन अधिकार
गाथा के भाव को स्पष्ट करते हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि यहाँ प्रत्येक द्रव्य के अस्तित्व को ही द्रव्य का लक्षण माना गया है और उक्त अस्तित्व में गुण-पर्याय तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी समाहित हो जाते हैं। इस बात को भी स्पष्ट कर दिया गया है कि द्रव्य या उसके गुणों में जो उत्पादादिरूप परिणमन होता है, परिवर्तन होता है; वह अस्तित्वस्वभाव को छोड़े बिना ही होता है।
टीका में अस्तित्व के भेद स्वरूपास्तित्व और सादृश्यास्तित्व की भी चर्चा है और सामान्य-विशेष गुण भी बताये गये हैं। वस्त्र के उदाहरण के माध्यम से यह भी समझाया गया है कि अस्तित्व अर्थात् गुण-पर्याय और उत्पाद, व्यय, धौव्य के साथ द्रव्य का स्वरूप भेद नहीं है। यद्यपि उनमें लक्ष्य-लक्षणभेद है; तथापिस्वरूपभेद नहीं है।
जो लोग स्वरूप और लक्षण को एक ही मान लेते हैं; उन्हें आचार्य अमृतचन्द्र के इस कथन का विशेष ध्यान देना चाहिए कि लक्षणभेद तो है, पर स्वरूपभेद नहीं है।
अस्तित्व सभी का एक है; अत: स्वरूपभेद नहीं है; पर सभी के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं; इसलिए लक्षणभेद है। उक्त सभी के लक्षण टीका में दिये ही गये हैं; अत: यहाँ विशेष कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है।
महासत्ता, सादृश्यास्तित्व का ही दूसरा नाम है और अवान्तरसत्ता, स्वरूपास्तित्व का।
अपने स्वभाव को छोड़े बिना - इस पद का अर्थ यह है कि वस्तु स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना सादृश्यास्तित्व में सम्मिलित है।
हम जैन भी हैं और दिगम्बर भी हैं। क्योंकि हम दिगम्बर जैन हैं। दिगम्बर और जैन - दोनों का एक साथ होने में कोई विरोध नहीं है। जिसप्रकार हम दिगम्बरत्व को छोड़े बिना जैनत्व में शामिल हैं; उसीप्रकार स्वरूपास्तित्व को छोड़े बिना हम सादृश्यास्तित्व में शामिल
इसप्रकार हम अवान्तरसत्ता और महासत्ता - दोनों से समृद्ध हैं; क्योंकि हम ज्ञानानन्दस्वभावी हैं। इसमें ज्ञानानन्दस्वभाव हमारी अवान्तरसत्ता है और हैं' अर्थात् अस्तित्व हमारी महासत्ता है।
हम चेतन होकर भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से संयुक्त और गुणपर्याय से युक्त द्रव्य हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त और गुण-पर्यायों से लक्षित हमारी महासत्ता है और ज्ञानानन्दस्वभावी चेतनत्व से लक्षित होना हमारी अवान्तर सत्ता है। महासत्ता से हम सबसे जुड़े हैं और अवान्तरसत्ता की वजह से हमारा अस्तित्व पूर्णत: स्वतंत्र है।