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प्रवचनसार
दृष्टि का विषयभूत भगवान आत्मा नहीं है; अपितु वर्तमान पर्याय से परिणमित आत्मा ही अथ परिणाम वस्तुस्वभावत्वेन निश्चिनोति -
णत्थि विणा परिणाम अत्थो अत्थं विणेह परिणामो। दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो।।१०।।
नास्ति विना परिणाममर्थोऽर्थं विनेह परिणामः ।
द्रव्य-गुण-पर्ययस्थोऽर्थोऽस्तित्वनिर्वृत्तः ।।१०।। न खलु परिणाममन्तरेण वस्तु सत्तामालम्बते । वस्तुनो द्रव्यादिभिः परिणामात् पृथगुपलम्भाभावान्नि:परिणामस्य खरशृङ्गकल्पत्वाद् दृश्यमानगोरसादिपरिणामविरोधाच्च ।
अन्तरेण वस्तु परिणामोऽपि न सत्तामालम्बते । स्वाश्रयभूतस्य वस्तुनोऽभावे निराश्रयस्य परिणामस्य शून्यत्वप्रसंगात्। है; क्योंकि जब दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा की बात चलती है, तब द्रव्य और पर्याय की भिन्नता की बात मुख्य रहती है।।९||
सातवीं गाथा में कहा गया था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही साम्य है, चारित्र है, धर्म है। आठवीं गाथा में कहा गया कि धर्म से परिणमित आत्मा ही धर्म है और नौवी गाथा में कहा गया कि आत्मा परिणामस्वभावी है। इसी क्रम में दशवीगाथा में अब यह कहा जा रहा है कि परिणाम वस्तु का स्वभाव ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) परिणाम बिन ना अर्थ है अर अर्थ बिन परिणाम ना।
अस्तित्वमय यह अर्थ है बस द्रव्यगुणपर्यायमय ||१०|| इस लोक में परिणाम के बिना पदार्थ नहीं है और पदार्थ के बिना परिणाम नहीं है; पदार्थ द्रव्य-गुण-पर्याय में रहनेवाला और अस्तित्व से निर्मित है।
उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व को धारण नहीं करती; क्योंकि वस्तु द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव केद्वारा परिणाम से भिन्न देखने में नहीं आती। परिणाम सेरहित वस्तु गधे के सींग के समान है, उसका दिखाई देनेवाले गोरस (दूध-दही-घी) इत्यादि के परिणामों के साथ विरोध आता है।
इसीप्रकार वस्तु के बिना परिणाम भी अस्तित्व कोधारण नहीं करता; क्योंकि स्वाश्रयभूत