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प्रवचनसार
धर्म है अर्थात् चारित्ररूप धर्म में परिणमित आत्मा ही चारित्र है।
परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्रज्ञप्तम् ।
तस्माद्धर्मपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ।।८।। यत्खलु द्रव्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलौष्ण्यपरिणताय:पिण्डवत्तन्मयं भवति। ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवतीति सिद्धमात्मनश्चारित्रत्वम्।।८॥ अथ जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वं निश्चिनोति -
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो।
सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो।।९।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) जिसकाल में जो दरव जिस परिणाम से हो परिणमित |
हो उसीमय वह धर्मपरिणत आतमा ही धर्म है।।८|| जोद्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमित होता है, वह द्रव्य उस समय उसीमय होता है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इसलिए धर्म परिणत आत्मा ही धर्म है।
उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जिसप्रकार उष्णतारूप परिणमित लोहे कागोला उस समय उष्ण ही है; उसीप्रकार जो द्रव्य जिस समय जिस भावरूपसे परिणमित होता है; उस समय उसीभावरूप होता है।
इसी नियम के अनुसार धर्मभाव से परिणमित आत्मा स्वयं धर्मरूप ही है। इसप्रकार आत्मास्वयं चारित्र है- यह बात सिद्ध होती है।"
ध्यान देने की बात यह है कि इस गाथा में द्रव्य और पर्याय की अभिन्नता स्पष्ट की गई है। इस अपेक्षा को समझे बिना कुछ लोग द्रव्य और पर्याय को सर्वथा भिन्न प्ररूपित करने लगते हैं। उन्हें इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि यहाँ आचार्यदेव शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म और शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म से परिणमित आत्मा को ही धर्म कह रहे हैं।॥८
बात यहाँ तक ही नहीं है कि धर्मपर्यायरूप परिणमित आत्मा धर्म है; अपितु आगामी गाथा में तो यहाँ तक कह रहे हैं कि शुद्धभावरूप परिणमित आत्मा शुद्ध है, शुभभावरूप परिणमित आत्मा शुभ है और अशुभभावरूप परिणमित आत्मा अशुभ है। इसप्रकार जीव ही