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की अपेक्षा एक हैं, परन्तु भाव की अपेक्षा जुदे-जुदे हैं; क्योंकि इनमें प्रदेशभेद नहीं है, पर भावभेद है ||८७॥
प्रवचनसार
विगत गाथाओं में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि जिनेन्द्रकथित द्रव्य-गुण-पर्याय के ज्ञान बिना मोह का नाश संभव नहीं है; अतः द्रव्य - गुण - पर्याय का ज्ञान करने के लिए जिनेन्द्रकथित शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए।
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अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर पुरुषार्थ कार्यकारी है; इसकारण जो जिनेश्वरदेव के उपदेशानुसार पुरुषार्थ करता है; मोह को अथैवं मोहक्षपणोपायभूतजिनेश्वरोपदेशलाभेऽपि पुरुषकारोऽर्थक्रियाकारीति पौरुषं व्यापारयति । अथ स्वपरविवेकसिद्धेरेव मोहक्षपणं भवतीति स्वपरविभागसिद्धये प्रयतते . जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेन ।। ८८ ।। णाणप्पगप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । जाणदिजदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि । । ८९ ।। यो मोहरागद्वेषान्निहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम् ।
स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ।। ८८ ।। ज्ञानात्मकमात्मानं परं च द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । जानाति यदि निश्चयतो यः स मोहक्षयं करोति ।। ८९ ।। इह हि द्राघीयसि सदाजवंजवपथे कथमप्यमुं समुपलभ्यापि जैनेश्वरं निशिततरवारिधारा
नाश करनेवाला वह अल्पकाल में ही सभीप्रकार के दुखों से मुक्त हो जाता है। स्वपर के विवेक से ही मोह का क्षय होता है, इसलिए वह स्वपर के विभाग की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है । गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
जिनदेव का उपदेश यह जो हने मोहरु क्षोभ को । वह बहुत थोड़े काल में ही सब दुखों से मुक्त हो ॥८८॥ जानता ज्ञानात्मक निजरूप अर परद्रव्य को T वह नियम से ही क्षय करे दृगमोह एवं क्षोभ को ॥८९॥