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प्रवचनसार
गाथा में यह कहा गया है कि अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानकर अपने आत्मा को जानना ही मोह के नाश का उपाय है।
अब इस गाथा में यह बताते हैं कि ८०-८१वीं गाथा में बताया गया मोह के नाश का उपाय अध्यात्मशास्त्रों के गहरे अध्ययन की अपेक्षा रखता है । शास्त्र स्वाध्याय मोह के नाश का उपायान्तर है । इस गाथा में उक्त उपायान्तर पर विचार करते हैं ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
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अथ मोहक्षपणोपायान्तरमालोचयति -
जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा । खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ॥ ८६ ॥
जिनशास्त्रादर्थान् प्रत्यक्षादिभिर्बुध्यमानस्य नियमात् । क्षीयते मोहोपचयः तस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ।। ८६ ।। यत्किल द्रव्यगुणपर्यायस्वभावेनार्हतो ज्ञानादात्मनस्तथाज्ञानं मोहक्षपणोपायत्वेन प्राक् प्रतिपन्नम्, तत् खलूपायान्तरमिदपेक्षते ।
इदं हि विहितप्रथमभूमिकासंक्रमणस्य सर्वज्ञोपज्ञतया सर्वतोऽप्यबाधितं शाब्दं प्रमाणमाक्रम्य क्रीडतस्तत्संस्कारस्फुटीकृतविशिष्टसंवेदनशक्तिसंपदः सहृदयहृदयानंदोद्भेददायिना प्रत्यक्षेणान्येन वा तदविरोधिना प्रमाणजातेन तत्त्वतः समस्तमपि वस्तुजातं परिच्छिन्दतः क्षीयत एवातत्त्वाभिनिवेशसंस्कारकारी मोहोपचयः । अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् ।। ८६ ।।
हरिगीत )
तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से ।
मोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए ॥८६॥
जिनशास्त्रों द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जाननेवाले का नियम से मोह के उपचय (समूह) का क्षय हो जाता है; इसलिए शास्त्रों का सम्यक्प्रकार से अध्ययन करना चाहिए।
उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“ ८०वीं गाथा में द्रव्य-गुण- पर्यायस्वभाव से अरहंत के ज्ञान द्वारा जो आत्मा का उसी प्रकार का ज्ञान मोहक्षय के उपाय के रूप में बताया गया था; वह वस्तुत: इस ८६वीं गाथा में प्रतिपादित उपायान्तर की अपेक्षा रखता है ।