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________________ १५२ प्रवचनसार मोहरूप, रागरूप अथवा द्वेषरूप परिणमित जीव के विविध बंध होता है; इसलिए वे मोह-राग-द्वेष सम्पूर्णत: क्षय करनेयोग्य हैं। उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - " धतूरा खाये हुए मनुष्य की भाँति द्रव्य - गुण - पर्याय संबंधी पूर्ववर्णित तत्त्व - अप्रतिपत्ति लक्षण जो जीव का मूढभाव है, वह मोह है । तेनावच्छन्नात्मरूप: सन्नयमात्मा परद्रव्यमात्मद्रव्यत्वेन परगुणमात्मगुणतया परपर्यायानात्मपर्यायभावेन प्रतिपद्यमान: प्ररूढदृढतरसंस्कारतया परद्रव्यमेवाहरहरुपाददानो, दग्धेन्द्रियाणां रुचिवशेनाद्वैतेऽपि प्रवर्तितद्वैतो रुचितारुचितेषु विषयेषु रागद्वेषावुपश्लिष्य, प्रचुरतराम्भोभारयाहतः सेतुबन्ध इव द्वेधा विदार्यमाणो नितरां क्षोभमुपैति । अतो मोहसमद्वेषभेदात्त्रिभूमिको मोहः ।।८३|| एवमस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिनिमीलितस्य, मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य, तृणपटलावच्छन्नगर्तसंगतस्य करेणुकुट्टनीगात्रासक्तस्य प्रतिद्विरददर्शनोद्धतप्रविधावितस्य च सिन्धुरस्येव, भवति नाम नानाविधो बन्धः । ततोऽमी अनिष्टकार्यकारिणो मुमुक्षुणा मोहरागद्वेषाः सम्यग्निर्मूलकाषं कषित्वा क्षपणीयाः ।। ८४ ।। आत्मा का स्वरूप उक्त मोह (मिथ्यात्व) से आच्छादित होने से यह आत्मा परद्रव्य को स्वद्रव्यरूप से, परगुण को स्वगुणरूप से और परपर्यायों को स्वपर्यायरूप से समझकर - स्वीकार कर अतिरूढ़ दृढ़तर संस्कार के कारण परद्रव्य को ही सदा ग्रहण करता हुआ, दग्धइन्द्रियों की रुचि के वश से अद्वैत में भी द्वैत प्रवृत्ति करता हुआ, रुचिकर - अरुचिकर विषयों में राग-द्वेष करके अति प्रचुर जलसमूह के वेग से प्रहार को प्राप्त पुल की भाँति दो भागों में खण्डित होता हुआ अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है । इससे मोह, राग और द्वेष - इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है। इसप्रकार तत्त्व-अप्रतिपत्तिरूप वस्तुस्वरूप के अज्ञान के कारण मोह-राग-द्वेषरूप परिणमित होते हुए इस जीव को - घास के ढेर से ढंके हुए गड्डे को प्राप्त होनेवाले थ की भाँति, हथिनीरूप कुट्टनी के शरीर में आसक्त हाथी की भाँति और विरोधी हाथी को देखकर उत्तेजित होकर उसकी ओर दौड़ते हुए हाथी की भाँति - विविधप्रकार का बंध है। इसलिए मुमुक्षुजीव को अनिष्ट कार्य करनेवाले इस मोह, राग और द्वेष का यथावत्
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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