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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि मोह-राग-द्वेष का अभाव कर ही अनन्तसुख की प्राप्ति की जा सकती है; अतः जिन्हें अनंतसुख की प्राप्ति करना है; वे अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानकर, उसी के समान अपने आत्मा को जानकर, मानकर, श्रद्धान कर उसी में जमकर, रमकर, उसी का ध्यान कर मोह का नाश करें; क्योंकि मोह के नाश का एकमात्र यही उपाय है, उपायान्तर का अभाव है।
अथ शुद्धात्मलाभपरिपन्थिनो मोहस्य स्वभावं भूमिकाश्च विभावयति । अथानिष्टकार्यकारणत्वमभिधाय त्रिभूमिकस्यापि मोहस्य क्षयमासूत्रयति -
दव्वादिसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति । खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा ।। ८३ ।। मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । जायद विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ।। ८४ ।। द्रव्यादिकेषु मूढो भावो जीवस्य भवति मोह इति । क्षुभ्यति तेनावच्छन्नः प्राप्य रागं वा द्वेषं वा ।। ८३ ।। मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य जीवस्य । जायते विविधो बन्धस्तस्मात्ते संक्षपयितव्याः ।। ८४ । । यो हि द्रव्यगुणपर्यायेषु पूर्वमुपवर्णितेषु पीतोन्मत्तकस्येव जीवस्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणो मूढो भाव: स खलु मोहः ।
अब आगामी गाथाओं में मोह-राग-द्वेष का स्वरूप स्पष्ट करते हु उन्हें जड़मूल उखाड़ फैंकने की प्रेरणा देते हैं । उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि शुद्धात्मलाभ के लुटेरे मोह का स्वभाव व भूमिका बताकर उसे अनिष्ट कार्यों का कारण बताते
( मोह - राग-द्वेष ) प्रकार के मोह का क्षय करने की बात करते हैं ।
हुए तीनों
गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत )
द्रव्यादि में जो मूढ़ता वह मोह उसके जोर से । कर राग-रुष परद्रव्य में जिय क्षुब्ध हो चहुं ओर से || ८३ ॥
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बंध होता विविध मोहरु क्षोभ परिणत जीव के ।
बस इसलिए सम्पूर्णत: वे नाश करने योग्य हैं || ८४ ॥
जीव के द्रव्य, गुण और पर्यायसंबंधी मूढ़ता ही मोह है। उक्त मोह से आच्छादित जीव राग-द्वेषरूप परिणमित होकर क्षोभ को प्राप्त होता है।