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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार
विगत गाथाओं में अनेक तर्क और युक्तियों से यह सिद्ध किया गया है कि इन्द्रियसुख सुख अथ पुण्यपापयोरविशेषत्वं निश्चिन्वन्नुपसंहरति -
ण हि मण्णदि जो एवंणत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।।७७।।
न हि मन्यते य एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपापयोः।
हिण्डति घोरमपारं संसारं मोहसंछन्नः ।।७७।। एवमुक्तक्रमेण शुभाशुभोपयोगद्वैतमिव सुखदुःखद्वैतमिव च न खलुः परमार्थतः पुण्यपापद्वैतमवतिष्ठते, उभयत्राप्यनात्मधर्मत्वाविशेषत्वात् ।
यस्तु पुनरनयो: कल्याणकालायसनिगडयोरिवाहङ्कारिकं विशेषमभिमन्यमानोऽहमिन्द्रनहीं है, दुख ही है। अब इस गाथा में यह समझा रहे हैं कि जब पाप के उदय में प्राप्त होनेवाले दुख के समान ही पुण्य के उदय में प्राप्त होनेवाला इन्द्रियसुख भी दुख ही है तो फिर पुण्य-पाप में अन्तर ही क्या रहा ? यह इस प्रकरण के उपसंहार की गाथा है। यही कारण है कि इसकी उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि अब पुण्य-पाप की समानता का निश्चय करते हुए उपसंहार करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है-जो न माने बात ये।
संसार-सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे||७७|| इसप्रकार जो व्यक्ति 'पुण्य और पाप में कोई अन्तर नहीं है'- ऐसा नहीं मानता है अर्थात् उन्हें समानरूप से हेय नहीं मानता है; वह मोह से आच्छन्न प्राणी अपार घोर संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करता है। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“विगत गाथाओं में प्रतिपादित वस्तुस्वरूप के अनुसार जब परमार्थ से शुभाशुभ उपयोग में और सांसारिक सुख-दुःख में द्वैत नहीं ठहरता; तब पुण्य और पाप में द्वैत कैसे ठहर सकता है ? क्योंकि पुण्य और पाप - दोनों में ही अनात्मधर्मत्व समान है।
तात्पर्य यह है कि पुण्य और पाप - दोनों ही आत्मा के धर्म नहीं; इसलिए आत्मधर्म के आराधकों को दोनों ही समानरूप से अधर्म हैं।
ऐसा होने पर भी जो जीव उन दोनों में सुवर्ण और लोहे की बेड़ी की भाँति अन्तर मानता