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प्रवचनसार
पाँचवीं बात यह है कि ये विषम हैं, अस्थिर हैं, घटते-बढ़ते रहते हैं।
इसप्रकार यह इन्द्रियसुख सर्वथा त्यागनेयोग्य है; एकमात्र अतीन्द्रिय आनन्द ही प्राप्त करनेयोग्य है, उपादेय है।
मूलत: बात यह है कि जबतक इन्द्रियसुख दुखरूप भासित नहीं होगा; तबतक पुण्य में उपादेयबुद्धि बनी ही रहेगी। अत: यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि इन्द्रिय सुख भी दुख ही है तथा पुण्य भी पाप के समान ही हेय है, त्यागनेयोग्य है।
पुराने जमाने में उपभोग की सभी वस्तुओं को छुपाकर रखा जाता था, उनका उपभोग भी एकान्त में होता था; पर आज सबकुछ सामने आ गया है। पहले खाने की सभी सामग्री रसोईघर में रहती थी; पर आज सभी कुछ भोजन की टेबल पर पारदर्शक बर्तनों में सजा रहता है; जो हमें खाने के लिए उत्तेजित करता है। पहले जो थाली में आ गया, खा लिया; पर आज अपने हाथ से उठा-उठाकर सबकुछ लिया जाता है। पुराने जमाने में महिलायें भी पर्दे में रहती थीं, पर आज तो सब कुछ बेपर्दा हो गया है। टी.वी. आदि सभी उत्तेजक सामग्री बेडरूम में
आ गई है और सत्साहित्य वहाँ से यह कहकर हटा दिया गया है कि यहाँ इसकी अविनय होगी। ___अरे भाई ! वैराग्यमय चित्र और वैराग्योत्पादक साहित्य घर में रखो, उसे पढ़ते-पढ़ते सोवोगे तो स्वप्न भी सात्विक आयेंगे।
ये उत्तेजक सामग्री न केवल हमारी वासनाओं को भड़काती है, उत्तेजित करती है; अपितु हमारी कुत्सित वृत्ति की प्रतीक भी है, परिणाम भी है। हमारी वृत्ति ही खोटी है; इसीकारण इन भड़काऊ चीजों का प्रवेश हमारे बेडरूम में हुआ है।
इसप्रकार ये भोग सामग्री हमारी उत्तेजित वासनाओं का परिणाम है और हमारी वासनाओं को भडकानेवाली भी हैं: अत: इन्हें गप्त रखना ही ठीक है। ये प्रदर्शन की वस्तुएँ नहीं हैं। ये भोगायतन हैं; इनसे हमारा घर भी भोगायतन ही बनेगा।
यदि हमें अपने घर को धर्मायतन बनाना है तो वैराग्यपोषक चित्र और सत्साहित्य घर में बसाना चाहिए। न केवल बसाना चाहिए, अपितु उसका अध्ययन भी नित्य करना चाहिए। स्वयं करना चाहिए और घरवालों को भी कराना चाहिए।
जिस घर में सत्साहित्य नहीं, वह घर घर नहीं, श्मसान है। यदि अपने घर को श्मशान नहीं बनाना है, मन्दिर बनाना है तो जिनवाणी को घर में बसाओ, उसका बहिष्कार मत करो, सत्कार करो, स्वाध्याय करो||७६||