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________________ १२० प्रवचनसार __ अथैवमिन्द्रियसुखस्य दुःखतायांयुक्त्यावतारितायामिन्द्रियसुखसाधनीभूतपुण्यनिर्वर्तकशुभोपयोगस्य दुःखसाधनीभूतपापनिर्वर्तकाशुभोपयोगविशेषादविशेषत्वमवतारयति - णरणारयतिरियसुरा भजन्ति जदि देहसंभवं दुक्खं । किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ।।७२।। में सुख मानता हुआ उसे चाट रहा है, विषयों को भोग रहा है। सद्गुरुरूपी देवता उसे बचाने के लिए हाथ बढ़ाते हैं, पर वह विषयसुखरूपी मधु के लोभ में फंसकर वहाँ से निकलना ही नहीं चाहता । सांसारिक सुख की यही स्थिति है; मोक्षसुख इससे विलक्षण है, विपरीत है। विगत गाथाओं में यह बताया गया है कि शुभभाव के फल में पुण्यबंध होता है और उससे तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में प्राप्त होनेवाला विषयसुख प्राप्त होता है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि शुभभाव के फल में प्राप्त होनेवाला सुख वास्तव में सुख ही नहीं है, वह तो दुख ही है। इस बात को सिद्ध करते हुए यह कह रहे हैं कि तिर्यंच, मनुष्य और देवों में सबसे अधिक सुखी देव माने जाते हैं; जब वे भी सुखी नहीं हैं, दुखी ही हैं तो फिर तिर्यंच और मनुष्यों की बात ही क्या करना? वे तो हमें भी दुखी दिखाई देते हैं। देवों को दुखी सिद्ध करने में सबसे बड़ी युक्ति यह है कि वे पंचेन्द्रियों की ओर दौड़ते देखे जाते हैं, उनमें रमते देखे जाते हैं। यदि वे दुखी नहीं हैं तो फिर विषयों में रमण क्यों करते हैं ? क्योंकि विषयों की रमणता तो दुख दूर करने के लिए ही होती है। इसप्रकार यह सहज ही सिद्ध है कि नित्य विषयों में रमनेवाले तिर्यंच, मनुष्य और देव दुखी ही हैं।।७१|| __विषयों में रमनेवाले देव भी दुखी ही हैं - विगत गाथा में यह स्पष्ट हो जाने पर अब इस गाथा में यह कहते हैं कि जब पुण्योदयवाले देव भी दुखी ही हैं तो फिर पुण्य और पाप में क्या अन्तर रहा? इसीप्रकार पुण्य और पाप के कारणरूपशुभ और अशुभभावों में भी क्या अन्तर रहा ? इसप्रकार हम देखते हैं कि शुभोपयोग और अशुभोपयोग में कोई अन्तर नहीं है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) नर नारकी तिर्यंच सुर यदि देहसंभव दुःख को। अनुभव करें तो फिर कहो उपयोग कैसे शुभ-अशुभ? ||७२।।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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