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पश्चात्ताप
एक समीक्षात्मक अध्ययन
___ यद्यपि प्रस्तुत काव्य के कथांश का मुख्य उपजीव्य जैन पुराण साहित्य (विशेषतः पद्मपुराण) ही रहा है; तथापि अन्य लोक-श्रुत तथ्यों का समावेश करने में भी कवि ने संकोच नहीं किया है। कल्पना का समाहार -
पौराणिक वृत्त के अनुसार, 'सीता के जैनेश्वरी दीक्षा लेने के संकल्प को सुनते ही राम मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े, मात्र इतना सा वर्णन है। ठीक इसी बिन्दु को आधार बनाकर कवि ने अपने काव्य का महल खड़ा किया है। अग्निपरीक्षा समाप्त होने पर राम को अपने द्वारा किए कृत्य पर पश्चात्ताप होता है और वह विलाप, प्रलाप, आत्मालाप में परिवर्तित हो जाता है।
चूंकि शेष चित्रण कल्पना-प्रसूत है; अतः लेखक को घटनाओं को स्वयं के अनुसार चित्रित करने की स्वतंत्रता मिल जाती है और वह सारी घटना को स्वयं की कल्पनाशक्ति से आधुनिक संदर्भो में ढ़ालता है। रचना के इस दौर में कवि की प्राणधारा अत्यंत प्रबल है। चिन्तन जैसे कगार तोड़ आगे बढ़ जाना चाहता हो और कवि अपने उस वेग को रोक पाने में असमर्थ अनुभव कर रहा हो - ऐसा प्रतीत होता है।
अपराधी हृदय सहज ही अपने अपराध को स्वीकार नहीं करता है, वह भी यदि वह अपराधी आदर्श हो तब तो और कठिन हो जाता है। पहले राम भी अपने अपराध के कारण दसरों में खोजने का प्रयास करते हैं
और वह सारा दोष जनता (प्रजा) के माथे मढ़ते हैं कि प्रजा ने ही उन्हें इस बात के लिए बाध्य किया कि वह सीता के साथ अन्याय करें, दूसरा दोष प्रजा का यह कि उसने मेरे जैसे व्यक्ति को जिसे न्याय करना नहीं आता हो, सत्य की समझ न हो, न्यायाधीश पद पर प्रतिष्ठित ही क्यों किया? प्रजा ही अविवेकी है, जिसने मुझ जैसे अन्यायी को चुना। किन्तु यह है कसूर किसका,
हमारा अथवा जनगण का। उन्होंने अन्यायी को चुना,
किन्तु मैं क्यों कहने से बना ।।१३।। फिर राम को लगता है कि भले ही प्रजा ने मेरा चयन किया; किन्तु मैं नकार भी सकता था; मैंने नकारा नहीं अर्थात् मेरे मन में लालसा विद्यमान थी। हो सकता है मेरा ही दोष हो। 'जाने-अनजाने' कहकर राम इस अपराध को हल्का कर रहे हैं। जैसे कि 'भूलवश गलती हो गईं, चलो माफ कर दो।
सामान्यतः वस्तु की कीमत वस्तु के खोने की आशंका मात्र में ही पता चल जाती है, किन्तु यहाँ तो सीता छूटी ही जा रही हैं। राम को अपने अपराध का बोध गहराया - उदर में था लवकुश जोड़ा,
तभी निर्जन वन में छोड़ा। प्रथम मैंने नाता तोड़ा,
आज उसने मुखड़ा मोड़ा ।।१६।। मैंने सीता को तब छोड़ा, जब कोई भी नारी अपना सबसे बड़ा सुख प्राप्त करने जा रही थी 'मातृत्व का सुख'। उसे उस समय सहारे की । अधिक जरूरत थी। यहीं पाठक को पहली बार पता लगता है कि सीता ।।
'पश्चात्ताप' : अंतस्थल का विप्लव प्रक्रिया और पाठ -
'पश्चात्ताप' काव्य का आरंभ नाटकीय शैली में होता है। कवि किसी सूत्रधार की तरह सबसे पहले मंगलाचरण कर काव्य की विषयवस्तु का परिचय देते हैं। इसी के साथ पूर्व में घटित घटना की सूचना देते हैं कि प्रजा की पुकार सुनकर अवधेश ने संपूर्ण समाज के समक्ष सीता की परीक्षा ले तो ली, लेकिन वह परीक्षा लेना स्वयं को भारी पड़ गया; क्योंकि सीता तो परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई, किन्तु प्रेमी हृदय राम अनुत्तीर्ण हो गए। उनका हृदय आन्दोलित हो गया। लगा जैसे कि मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया है, अन्याय हो गया है।
क्या इसका प्रतिकार संभव है? नहीं! कतई नहीं!! तीर कमान से निकल गया है।