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१. वन
( ८४ ) छोड़ा था सीता को मैंने,
असहाय अकेली कानन में । मुझको सबन्धु' वह छोड़ चली,
क्या मृदुता है नारी जन में ? ।। (८५) नारी कितनी है त्याग-शील, नररत्नों को पैदा करके । जो उसको देवे त्रास महा,
चल देती उसको दे कर के ।। (८६) सीता ने लव-कुश महावीर,
निर्भीक सुसुन्दर सुत जाये । जिनको देखो रणप्रांगण में,
न लक्ष्मण राम जीत पाये ।। (८७) ऐसे इन लव-कुश बेटों को,
अपराधी को अर्पित करके । शोकार्त्त पति को त्याग सती,
बन गई वीर अबला बन के ।। (८८) कई भगवन् का अपवाद करें,
पर उनको त्याग न देंगे हम । यदि निन्दक साधु को निन्दे,
तो क्या असाधु कह देंगे हम ? ।। २. भाइयों के साथ ३. अनेक लोग ४. निन्दा
पश्चात्ताप
पश्चात्ताप
१. सौ
(८९) सज्जन सज्जन ही रहें किन्तु,
हम ही दुर्जन कहलायेंगे । कौआ कोसे यदि शतक' बार, तो नहीं पशु मर जायेंगे ।।
( ९० )
मेरा अपवाद जगत करता, क्या छोड़ जानकी देती चल । यदि नहीं, कहो फिर तुम्हीं राम, क्या नहीं मूर्खता यह केवल ।। (९१) जिसका आलोचकर कोई न हो,
ऐसा दर्शन या महापुरुष । इस जगतीतल में दुर्लभ है, जो सर्वमान्य हो महापुरुष ।। (९२)
तो क्या हम सभी दर्शनों को,
निन्दा के कारण तज देंगे ? । तथा प्रशंसा के कारण,
चाहे जो कुछ अपना लेंगे ? ।। (९३) निन्दा करने से मात्र नहीं,
मैं कभी धरम को छोडूंगा । जग कर दे चाहे बहिष्कार,
भगवान से मुख ना मोडूंगा ।।
२. निन्दक
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