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________________ ३० १. वन ( ८४ ) छोड़ा था सीता को मैंने, असहाय अकेली कानन में । मुझको सबन्धु' वह छोड़ चली, क्या मृदुता है नारी जन में ? ।। (८५) नारी कितनी है त्याग-शील, नररत्नों को पैदा करके । जो उसको देवे त्रास महा, चल देती उसको दे कर के ।। (८६) सीता ने लव-कुश महावीर, निर्भीक सुसुन्दर सुत जाये । जिनको देखो रणप्रांगण में, न लक्ष्मण राम जीत पाये ।। (८७) ऐसे इन लव-कुश बेटों को, अपराधी को अर्पित करके । शोकार्त्त पति को त्याग सती, बन गई वीर अबला बन के ।। (८८) कई भगवन् का अपवाद करें, पर उनको त्याग न देंगे हम । यदि निन्दक साधु को निन्दे, तो क्या असाधु कह देंगे हम ? ।। २. भाइयों के साथ ३. अनेक लोग ४. निन्दा पश्चात्ताप पश्चात्ताप १. सौ (८९) सज्जन सज्जन ही रहें किन्तु, हम ही दुर्जन कहलायेंगे । कौआ कोसे यदि शतक' बार, तो नहीं पशु मर जायेंगे ।। ( ९० ) मेरा अपवाद जगत करता, क्या छोड़ जानकी देती चल । यदि नहीं, कहो फिर तुम्हीं राम, क्या नहीं मूर्खता यह केवल ।। (९१) जिसका आलोचकर कोई न हो, ऐसा दर्शन या महापुरुष । इस जगतीतल में दुर्लभ है, जो सर्वमान्य हो महापुरुष ।। (९२) तो क्या हम सभी दर्शनों को, निन्दा के कारण तज देंगे ? । तथा प्रशंसा के कारण, चाहे जो कुछ अपना लेंगे ? ।। (९३) निन्दा करने से मात्र नहीं, मैं कभी धरम को छोडूंगा । जग कर दे चाहे बहिष्कार, भगवान से मुख ना मोडूंगा ।। २. निन्दक ३१
SR No.008366
Book TitlePaschattap
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size175 KB
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