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पंच परमेष्ठी मन लगाने के लिए अथवा उदासीनता के कारण - ऐसे रमणीक स्थान में विराजते हैं।
जैसे कोई अपनी निधि को छिपाता फिरता है और एकान्त स्थान में उसका अनुभव करता है; वैसे ही महामुनि अपनी ज्ञान-ध्यानरूपी निधि को छिपाते फिरते हैं और एकान्त में ही उसका अनुभव करते हैं।
वे ऐसा विचार करते हैं कि मेरी ज्ञान-ध्यान निधि न चली जाये और मेरे ज्ञानभोग में अन्तर न पड़े, इसलिए वे कठिन-कठिन स्थानों में वास करते हैं; जहाँ मनुष्य का संचार नहीं, वहाँ वास करते हैं।
मुनिराज को पर्वत, गुफा, नदी, श्मशान और वन ऐसे लगते हैं, मानो वे ध्यान करने को ही पुकारते हैं! -“आओ, आओ ! यहाँ ध्यान करो, ध्यान करो !! निजानन्द स्वरूप में विलास करो, रमण करो! तुम्हारा उपयोग स्वरूप में बहुत लगेगा, इसलिए अन्य कुछ न विचारो!"
शुद्धोपयोगी मुनिराज जहाँ तेज पवन चले वहाँ, जहाँ तेज धूप हो वहाँ तथा जहाँ बहुत अधिक मनुष्यों का संचार हो वहाँ हठपूर्वक नहीं बसते हैं; क्योंकि मुनिराज का अभिप्राय एक ध्यान-अध्ययन करने का ही है, जहाँ ध्यान-अध्ययन की वृद्धि हो, वहाँ ही वास करते हैं। ___कोई ऐसा जाने कि मुनिराज सर्वप्रकार ऐसे कठिन-कठिन स्थान में ही रहें, स्वयं निरन्तर चाह-चाह कर परीषह को ही सहें, इतना दुर्धर तपश्चरण करें और निरन्तर ध्यानमग्न ही रहें - ऐसा तो नहीं है। ___ कारण कि मुनिराज को बाह्य-क्रिया से तो प्रयोजन है नहीं और जो अट्ठाईस मूलगुण ग्रहण किए हैं, उनमें अतिचार नहीं लगाते। इसके बावजूद क्रिया का सहज पालन करते हैं। उपयोग लगने के अनुसार परीषह सहन करते हैं। यदि भोजन करने से शरीर को प्रबल हुआ जानें तो ऐसा विचारें कि यदि यह शरीर प्रबल होगा तो प्रमाद को उपजाएगा।
साधु का स्वरूप इसलिए एक-दो दिन भोजन का त्याग करना ही उचित है।
भोजन का त्याग कर शरीर को क्षीण होता जाने तो ऐसा विचार करें कि - यदि यह शरीर क्षीण होगा तो परिणाम को शिथिल करेगा
और परिणाम शिथिल होगा तो ध्यान-अध्ययन नहीं सधेगा। इस शरीर से मुझे कोई वैर/द्वेष नहीं, यदि हो तो इसको क्षीण ही करे । मुझे इस शरीर से राग भी नहीं, जो इसका पोषण ही करें। इसलिए मुनिराज को शरीर से राग-द्वेष का अभाव है, जिस कार्य से उनका ध्यान-अध्ययन सधे, वही कार्य करते हैं। ____ इसप्रकार मुनिराज पवन, गर्मी, कोलाहल, शब्द एवं मनुष्य आदि के गमन के स्थानों में उपाय कर/जान-बूझकर नहीं बैठते हैं। वहाँ बैठते हैं, जहाँ ध्यान-अध्ययन से परिणाम च्युत न हों। मुनिराज का एक कार्य ध्यान-अध्ययन ही है। इसमें अन्तराय पड़ने के जो कारण हों, उन कारणों को दूर से ही छोड़ते हैं।
आप ध्यान में विराजते हैं, पश्चात् कोई ध्यान के विरुद्ध कारण प्राप्त हो तो ध्यान को छोड़, उठकर नहीं जाते । शीत ऋतु में नदी के तीर पर ध्यान धारण करते हैं, ग्रीष्म ऋतु में तप्त शिला के ऊपर एवं पर्वत के शिखर पर ध्यान धारण करते हैं। चातुर्मास में वृक्षों के तले ध्यान करते हैं। वे अपने परिणामों की विशुद्धता के अनुसार ध्यान धारण करते हैं। परिणाम अत्यन्त विरक्त हों तो ऐसी जगह जाकर ध्यान धारण करें; अन्यथा अन्य स्थान पर जहाँ मन स्थिर रहे, वहाँ ध्यान धारण करें। ____ मुनिराज सामने आए उपसर्ग को छोड़कर नहीं जाते; क्योंकि उनकी तो सिंहवत् वृत्ति है। जबतक मुनिराज के परिणाम ध्यान में स्थिर रहते हैं, तबतक तो ध्यान को छोड़कर अन्य कार्य नहीं विचारते हैं। ध्यान से परिणाम नीचे आए हों, तब शास्त्राभ्यास करते हैं एवं दूसरों को कराते हैं तथा अपूर्व जिनवाणी के अनुसार ग्रन्थ का अवलोकन करते हैं।