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पंच परमेष्ठी अथवा नगरादि को छोड़कर, वन में जाकर, नासाग्रदृष्टि धारणकर एवं ज्ञानसरोवर में प्रवेश कर सुधा-अमृत को पीते हैं अथवा ज्ञानअमृत में क्रीड़ा करते हैं एवं ज्ञानसमुद्र में ही डूबे रहते हैं अथवा संसार के भय से थके हुए, डरकर अभ्यन्तर में अमूर्तिक पुरुषाकार ज्ञानमयीमूर्ति - ऐसा चैतन्यदेव, उसकी सेवा करते हैं तथा सभी को अशरण जानकर चैतन्यदेव की शरण को प्राप्त हुए हैं।
शुद्धोपयोगी मुनि के विचार एवं उनकी भावपूजा - वे इसप्रकार विचार करते हैं - भाई ! मुझे तो एक चैतन्य-धातुमय पुरुष ज्ञायक की महिमा का धारक - ऐसा परमदेव; वही शरण है, अन्य शरण नहीं; इसप्रकार मेरा निःसन्देह श्रद्धान है।
इसके बाद वे सुधामृत से कर्मकलंक धोने के लिए चैतन्यदेव का (१) स्नपन अर्थात् प्रक्षालन करते हैं और मग्न होकर उनके सन्मुख ज्ञानधारा का क्षेपण करते हैं।(२) निजस्वभाव के चन्दन से उसकी अर्चना करते हैं अर्थात् पूजते हैं। (३) अनन्तगुणों के अक्षत उसके सम्मुख क्षेपण करते हैं । (४) सुमन अर्थात् भले मन का आठ पंखुड़ीसंयुक्त कमल-पुष्प उसके सन्मुख चढ़ाते हैं।(५) ध्यानरूपी नैवेद्य को स्वरूप के सन्मुख करते हैं। (६) ज्ञानरूपी दीप को उसमें प्रकाशित करते हैं, मानो ज्ञानदीप से चैतन्यदेव का स्वरूप ही अवलोकन करते हों।(७) ध्यानाग्नि में कर्मरूपी धूप को उदार मन से अत्यधिक शीघ्रतापूर्वक भलीभाँति क्षेपण करते हैं और इसके पश्चात् उससे (८) निजानन्द के फल को भलीभाँति प्राप्त करते हैं - इसप्रकार इन अष्टद्रव्यों से भावपूजन करते हैं।
वे मुनिराज सदा शुद्धस्वरूप में लगे हैं। मार्ग के भोले जानवर/पशु उनको काष्ठ का दूँठ जानकर, उनके शरीर से खाज खुजाते हैं, तो भी उनका उपयोग ध्यान से नहीं चलता है। इसप्रकार निजस्वभाव में रत/
साधु का स्वरूप लीन हुए हैं। हाथी, सिंह, सूकर, व्याघ्र, मृग इत्यादि वैरभाव छोड़कर, सन्मुख खड़े होकर नमस्कार करते हैं। अपने हित के लिए उनके उपदेश को चाहते हैं। ___ ज्ञानामृत का आचरण कर नेत्रों से अश्रुपात होता है; वह अंजुलि में गिरता है। गिरते-गिरते अंजुलि भर जाती है; जिसे चिड़िया, कबूतर आदि भोले पक्षी जल समझकर रुचि से पीते हैं। वह अश्रुपात ऐसा होता है, मानो आत्मिकरस ही झरता हो! वह आत्मिकरस हृदय में समाया नहीं है, इसलिए बाहर निकला है अथवा मानो कर्मरूपी वैरी का ज्ञानरूपी खड्ग से संहार किया है; उससे रुधिर उछल कर बाहर निकला है।
वे मुनिराज अपने ज्ञानरस में छक रहे हैं, इसलिए बाहर निकलने में असमर्थ हैं। कदाचित् पूर्व की वासना से बाहर निकलते हैं तो उन्हें यह जगत इन्द्रजालवत् भासित होता है। किन्तु तत्क्षण ही स्वरूप में लग जाते हैं। स्वरूप में लगने से आनन्द उपजता है; जिससे शरीर की ऐसी दशा होती है कि रोमांच होता है और हृदय गद्गद् होता है। कभी तो जगत के जीवों को उनकी उदासीन मुद्रा प्रतिभासित होती है और कभी मानो मुनि ने निधि प्राप्त की हो ! - ऐसी हँसमुख मुद्रा प्रतिभासित होती है । मुनिराज की ये दोनों दशाएँ अत्यन्त शोभित होती हैं । मुनि तो ध्यान में लीन हुए सौम्यदृष्टि धारण करते हैं और वहाँ नगर से राजा आदि वन्दना करने आते हैं।
इस काल में मुनिराज कहाँ विराजते हैं ? वे मुनिराज या तो श्मशानभूमि में अथवा निर्जन पुराने वन में अथवा पर्वत आदि की कन्दरा/गुफा में अथवा पर्वत के शिखर पर अथवा नदी के किनारे अथवा किसी उजाड़ भयानक अटवी में अथवा किसी एकान्त वृक्ष के नीचे अथवा वसतिका में अथवा नगर के बाहर चैत्यालय इत्यादि में