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________________ सम्पादकीय प्रकाशकीय 'पंचपरमेष्ठी' नामक इस लघु कृति का प्रकाशन प्रात:स्मरणीय भ. महावीर के २६सौवें जन्मकल्याणक वर्ष में होना नि:संदेह गौरव का विषय है। पुस्तक के शीर्षक से ही पुस्तक की विषयवस्तु का दिग्दर्शन हो रहा है। प्रस्तुत कृति में पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का विवेचन बहुत ही सारगर्भित एवं मर्मस्पर्शी है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये पंचपरमेष्ठी हैं। इनका जिनागम में महत्त्वपूर्ण स्थान है। पंचपरमेष्ठी प्रत्येक जैन श्रावक को पूज्य हैं। प्रकाशित कृति की विषय सामग्री ज्ञानानन्द श्रावकाचार' ग्रंथ से उद्धृत की गई है; जिसकी रचना पण्डित टोडरमलजी के अनन्य सहयोगी ब्र. साधर्मीभाई रायमल्लजी द्वारा जयपुर में की गई थी। आपका तलस्पर्शी ज्ञान प्रस्तुत ग्रंथ में स्थान-स्थान पर झलकता है। ग्रंथ में वर्णित पंचपरमेष्ठी का स्वरूप हृदयग्राही एवं मर्मस्पर्शी है, जिसे अपने कुशल सम्पादन में ब्र. यशपालजी ने संकलित व अनुवाद कर इसे लघु पुस्तिका के रूप में प्रस्तुत किया है। इस श्रमसाध्य कार्य के लिए ब्र. यशपालजी धन्यवाद के पात्र हैं। धुन के धनी ब्र. यशपालजी इन दिनों साहित्य साधना में संलग्न हैं और नित नए प्रयोग कर जैन संस्कृति के बिखरे वैभव को संजोकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं, जो गौरव का विषय है। वे शतायु होकर साहित्य सृजन करते रहें और समाज को नई दिशा प्रदान करें, ऐसी आशा है। पुस्तकके प्रकाशन का दायित्व सदा की भांति प्रकाशन विभाग के प्रभारी श्री अखिल बंसल ने बखूबी सम्हाला है। पुस्तकका नयनाभिराम आवरण भी उन्हीं की कल्पनाशीलता का परिणाम है। पुस्तक को अल्पमूल्य में उपलब्ध कराने का श्रेय श्रीमती भंवरीबाई घीसालालजी छाबड़ा ट्रस्ट, सीकर को है, जिन्होंने चालीस हजार रुपए की धनराशि प्रदान कर सहयोग दिया है। अन्य जिन महानुभावों का भी इस प्रकाशन में प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग प्राप्त हुआ है, हम सभी का हृदय से आभार मानते हैं। आप सभी प्रस्तुत प्रकाशन का भरपूर लाभ लें व अपने जीवन को सार्थक बनावें. इसी भावना के साथ - नेमीचन्द पाटनी महामंत्री सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रतिपादित चारों ही अनुयोग प्रत्येक मुमुक्षु को प्रिय लगना स्वाभाविक ही है। साधर्मीभाई ब्रह्मचारी रायमल्लजी रचित ज्ञानानन्द श्रावकाचार का प्रमेय अध्यात्मगर्भित होने से मुझे भी बहुत अच्छा लगा। भोपाल के मुमुक्षु मण्डल ने हिन्दी भाषा में (अनुवादक पण्डित श्री कस्तूरचन्दजी एम.ए. (त्रय) बी.एड., विदिशा) ज्ञानानन्द श्रावकाचार को प्रकाशित किया है। उसका एक बार तो मैंने आद्योपान्त वाचन किया; तथापि तृप्ति न होने के कारण दुबारा पढ़ा । इस ग्रन्थ में अनेक विषय जो अन्यत्र अप्राप्य अथवा दुर्लभ हैं - ऐसे आये हैं। खास करके अरहन्त, सिद्ध एवं साधु परमेष्ठी का विवेचन मुझे अत्यन्त मर्मस्पर्शी लगा। इसकारण मैंने पूरे ग्रन्थ में जहाँ-जहाँ पाँचों परमेष्ठी का कथन आया है, उन सबको एक स्थान पर व्यवस्थित क्रम से दिया है। सम्पादन के समय मुझे अनुवाद भी करने का भाव आया; अत: मैने मूल विषय/ अभिप्राय को सुरक्षित रखते हुए हिन्दी में ही पुनः अनुवाद भी किया है। मैंने मूल ज्ञानानन्द श्रावकाचार में किस-किस पृष्ठ से विषय एकत्रित किया है; उसे मैं आगे दे रहा हूँ। जिज्ञासु पाठक मूल ग्रन्थ से मिलान करके भी आनन्द ले सकते हैं। कहीं कुछ कमी अथवा अन्यथा लगे तो मुझे लिखने का कष्ट करें। मैं अगले संस्करण में सुधार कर छपाने का प्रयास करूंगा। इस कृति के प्रकाशन करने में पण्डित श्री संजय शास्त्री बड़ामलहरा का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है, उनके सहयोग के कारण ही यह कृति शुद्ध छप सकी है; अत: मैं उनको धन्यवाद देता हूँ। श्री दिनेश शास्त्री बड़ामलहरा ने टाईपसैंटिग का कार्य किया है। सम्पादन एवं अनुवाद के समय अनेक बार परिच्छेद बदलना, भाषा परिवर्तन करने के कारण पुनःपुन: कम्पोज करने का कष्टप्रद कार्य रुचि से किया है; अत: वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। भोपाल नगर निवासी वैराग्य परिणाम के धनी पण्डित श्री राजमलजी जैन ने भी मेरे सम्पादन एवं अनुवाद को आद्योपान्त दो-दो बार बारीकी से देखकर उपयोगी सुझाव दिये हैं। अत: मैं पण्डितजी का भी आभारी हूँ। जिनवाणी के रसिक पाठक इस कृति का अवश्य लाभ लेंगे- इस अभिप्राय के साथ विराम लेता हूँ। - यशपाल जैन दिनांक : १७.१.२००२
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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