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________________ पंच परमेष्ठी किया है! सिद्ध भगवान कैसे हैं ? जिनके असंख्यातप्रदेश शान्तिरस से भरे हैं, ज्ञानरस से आह्लादित हैं; जिनके समस्त प्रदेशों में शुद्धामृत झरता है तथा अखण्ड धारा-प्रवाहरूप से बहता रहता है। जिसप्रकार चन्द्रमा के विमान में अमृत झरता है, वह औरों को आनन्द-आह्लाद उत्पन्न करता है, आताप को दूर करता है तथा सबको प्रफुल्लित करता है; उसीप्रकार सिद्ध भगवान स्वयं तो ज्ञानामृत का पान करते हैं तथा औरों को भी आनन्दकारी हैं। जिनका नाम लेने एवं ध्यान करने से ही भवरूपी आतापविलीन हो जाता है, परिणाम शान्त होते हैं और स्व-पर की शुद्धता होती है, ज्ञानामृत का पान होता है तथा निजस्वरूप की प्रतीति आती है - ऐसे सिद्ध भगवान को हमारा बारम्बार नमस्कार हो। ऐसे सिद्ध भगवान जयवन्तरूप प्रवर्तन करें तथा मुझे संसार-समुद्र से निकालें, संसार में डूबने से मेरी रक्षा करें, मेरे अष्टकर्मों का नाश करें, मेरे कल्याण के कर्ता हों, मुझे मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति कराएँ, मेरे हृदय में निरन्तर वास करें तथा मुझे अपने समान करें। सिद्ध भगवान कैसे हैं ? जिनके जन्म-मरण नहीं, जिनके शरीर नहीं, जिनका विनाश नहीं और जिनका संसार में वापिस आगमन नहीं, जो अपने ज्ञान और प्रदेशों में अकम्प हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व एवं चेतनत्व आदि अनन्त गुणों से पूर्ण भरे हुए हैं, इसीलिए अन्य अवगुणों को आने के लिए स्थान नहीं - ऐसे सिद्ध भगवान को पुन: मेरा नमस्कार हो - ऐसे सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूप में अन्तर नहीं है। इसप्रकार जैसे सिद्ध हैं, वैसे ही सिद्ध का स्वरूप शिष्य को बताया और इसप्रकार उपदेश देते हैं - "हे शिष्य ! हे पुत्र ! तुम तो सिद्ध सिद्ध का स्वरूप समान हो, इसमें सन्देह मत करो। सिद्धों के स्वरूप और तुम्हारे स्वरूप में अन्तर नहीं है। जैसे सिद्ध हैं, वैसे ही तुम हो । वर्तमान समय में तुम अपने को स्वभाव से सिद्धसमान देखो। विचार करो! सिद्धसमान हो कि नहीं? उसे देखते ही कोई परम आनन्द उत्पन्न होगा, वह कहने मात्र का नहीं है; परमार्थत: ऐसा ही है।" "इसलिए अब तुम सावधान होकर, अपनी परिणति सुलट कर तथा एकाग्रचित्त से साक्षात् ज्ञाता-दृष्टा पर को देखने-जाननेवाले - उसको ही तुम देखो, अवलोकन करो; शिथिलता/ढील मत करो!" ऐसे अमृतरूपी श्रीगुरु के वचन सुनकर शिष्य शीघ्र ही अपने स्वरूप का विचार करने लगा। परम दयालु श्रीगुरु ने बारम्बार मुझसे यही कहा और यही उपदेश दिया है, अत: इसका क्या प्रयोजन है ? एक मेरे भला करने का ही प्रयोजन है; इसलिए मुझसे बार-बार कहा है। अत: देखो, मैं सिद्धसमान हूँ कि नहीं? देखो ! जब यह जीव मरण समय इस शरीर से निकलकर दूसरी गति में जाता है; तब इस शरीर के अंगोपांग, हाथ-पैर, आँख-कान, नाक-इत्यादि सर्व चिह्न ज्यों के त्यों रहते हैं; किन्तु चेतनपना नहीं रहता। इससे यह जाना गया कि जाननेवाला-देखनेवाला व्यक्ति कोई और ही था। __ तथा देखो, मरण समय जब यह जीव अन्य गति में जानेवाला होता है, तब कुटुम्ब-परिवार के लोग मिलकर इसे बहुत पकड़-पकड़ कर रखना चाहें तथा गहरे तलघर में मोटे कपाट में भी जड़कर रखें, तो भी सर्व कुटुम्ब के देखते-देखते दीवार एवं घर में से आत्मा निकल जाता है और यह किसी को नहीं दिखता है इसलिए यह जाना गया कि आत्मा अमूर्तिक है । यदि मूर्तिक होता तो शरीर की भाँति पकड़ने से
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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