SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध का स्वरूप सिद्ध का स्वरूप अब मोक्षसुख का वर्णन करते हैं - 'ॐ श्री सिद्धेभ्य: नमः' - श्रीगुरु के निकट शिष्य प्रश्न करता है - "हे स्वामी ! हे नाथ ! हे कृपानिधि ! हे दयानिधि ! हे परम उपकारी ! हे संसारसमुद्र तारक ! भोगों से परान्मुख! आत्मिकसुख में लीन ! आप मुझको सिद्धपरमेष्ठी के सुख का स्वरूप कहो।" वह शिष्य कैसा है ? महाभक्तिवान है और जिसके एकमात्र मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा है। विशेषप्रकार से यह श्रीगुरु की तीन प्रदक्षिणा देकर, हस्तकमल मस्तक से लगाकर, हाथ जोड़कर, गुरु का समय पाकर, बार-बार दीनता और विनयपूर्वक वचन कहकर मोक्ष के सुख को पूछता है। ___तब श्रीगुरु कहते हैं - "हे पुत्र ! हे भव्य ! हे आर्य ! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया, अब तुम सावधान होकर सुनो!" यह जीव शुद्धोपयोग के माहात्म्य से केवलज्ञान उत्पन्न कर सिद्धक्षेत्र में विराजमान होता है। यह चरमशरीर से किंचित् न्यून-आकार को धारण किए सिद्धक्षेत्र में जाकर शाश्वत विराजता है। एक-एक सिद्ध की अवगाहना में अनन्तानन्त सिद्ध भगवान भिन्न-भिन्न विराजते हैं, कोई किसी से मिलता नहीं है। सिद्ध भगवान कैसे हैं ? उनकी आत्मा में लोकालोक के तीन काल सम्बन्धी चराचर पदार्थ द्रव्य, गुण और पर्याय सहित एक समय में युगपत् झलकते हैं। उनके चरण-युगल को मैं नमस्कार करता हूँ। सिद्ध भगवान कैसे हैं ? वे परम पवित्र हैं, परम शुद्ध हैं और आत्मिकस्वभाव में लीन हैं। परम अतीन्द्रिय, अनुपम, बाधारहित, निराकुलित, स्वरस को निरन्तर, अखण्डरूप से पीते हैं। उसमें अन्तर नहीं होता है। सिद्ध भगवान कैसे हैं ? वे असंख्यातप्रदेशी, चैतन्यधातु के पिण्ड, अगुरुलघुरूप को धारण किए, अमूर्तिक आकार से युक्त हैं। उन्हें सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष भिन्न-भिन्न दिखते हैं। __सिद्ध भगवान कैसे हैं ? वे नि:कषाय हैं, आवरण से रहित हैं। उन्होंने घातिया-अघातिया कर्ममल को धो डाला है। अपना ज्ञायकस्वभाव प्रकट किया है। प्रतिसमय षट्गुण हानि-वृद्धिरूप परिणमते हैं। अनन्तानन्त आत्मिकसुख का आस्वादन करते हुए तृप्त नहीं होते हैं अथवा अत्यन्त तृप्त हैं, अब उनको कुछ चाह नहीं रही। सिद्ध भगवान कैसे हैं ? वे अखण्ड, अजर, अविनाशी, निर्मल हैं; शुद्ध हैं; चैतन्यस्वरूप एवं ज्ञानमूर्ति हैं; ज्ञायक, वीतराग और सर्वज्ञ हैं। सर्व तत्त्वों के जाननेवाले हैं; सहजानन्द हैं; सर्व कल्याण के पुञ्ज हैं; त्रैलोक्यपूज्य हैं; सर्व विघ्नों के हरण करनेवाले हैं। गृहस्थदशा में श्री तीर्थंकरदेव भी उनको नमस्कार करते हैं। मैं भी उन्हीं के गुणों की प्राप्ति के लिए बारम्बार हस्तकमल मस्तक से लगाकर उन्हें नमस्कार करता है। सिद्ध भगवान कैसे हैं ? वे देवाधिदेव हैं। देवसंज्ञा सिद्ध भगवान के लिए ही शोभित होती है। चार परमेष्ठी को गुरुसंज्ञा है, देवसंज्ञा नहीं तथा वे सर्व तत्त्वों को प्रकाशित करते हुए भी ज्ञेयरूप नहीं परिणमते हैं, अपने स्वभावरूप ही रहकर ज्ञेयों को इसप्रकार जानते हैं मानो ये समस्त ज्ञेय पदार्थ उनके शुद्धज्ञान में डूब गए हैं या मानो उनको वे उखाड़कर पूर्णरूप से निगल गए हैं या अवगाहन शक्ति में समा गए हैं या मानो आचरण में समा गए हैं या मानो स्वभाव में आकर बस गए हैं या मानो तादात्म्य होकर परिणमते हैं या मानो प्रतिबिम्बित हुए हैं या मानो पाषाण में ही उत्कीर्ण हो गए हैं या चित्राम के चितेरे हैं या मानो स्वभाव में आकर प्रवेश
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy