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नींव का पत्थर
समता ने संकट के समय धैर्य बंधानेवाले भैया भगवतीदासजी का निम्नांकित भजन सुनाते हुए कहा -
'जो-जो देखी वीतराग ने सो-सो होसी वीरा रे! अनहोनी होसी नहिं कबहूँ, काहे होत अधीरा रे! समयो एक घटे नहिं बढ़सी, जो सुख-दुःख की पीरा रे! तू क्यों सोच करे मन मूरख होय वज्र ज्यों हीरा रे!!'
तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञदेव के केवलज्ञान में प्रतिबिम्बित हुए समस्त द्रव्य-गुण-पर्याय के अनुसार जिस जीव का जब जो सुख-दुःख, जीवनमरण, असह्य पीड़ा आदि होनेवाले हैं, वे तो होकर ही रहेंगे, उसे कोई टाल नहीं सकता। इस श्रद्धा और विश्वास के बल पर सभी प्रकार के दुःख सहने की सामर्थ्य सहज में प्रगट हो जाती है।
कविवर बुधजनजी ने भी उपर्युक्त बात का ही पोषण करते हुए अपने आध्यात्मिक भजन में पाँच समवायों के माध्यम से जो सशक्त बात कही, उसने तो हृदय को ही हिला दिया। वे कहते हैं -
'जाकरि जैसे जाहि समय में जो हो तब जा द्वार । सोबनिहै टरहै कछु नाहीं, करलीनो निरधार ।।
हम को कछु भय ना रे! जान लियो संसार ।।' उपर्युक्त कथन में ज्ञानी की निर्भयता का आधार भी यही है कि - मैंने संसार के स्वतंत्र परिणमन का स्वरूप अच्छी तरह से समझ लिया है। इस लोक में जिस द्रव्य की जो पर्याय जिस समय में जिसविधि से जिसके द्वारा जैसी होनी होती है, उसी द्रव्य की वही पर्याय उसी समय में उसी विधि (पुरुषार्थ) पूर्वक, उसी के निमित्त द्वारा वैसी ही होती है। उसे कोई टाल नहीं सकता। आगे-पीछे नहीं कर सकता। सुख-दुःख, जीवनमरण सब कुछ निश्चित है। यह मैंने अच्छी तरह समझ लिया है। अतः अब मुझे कुछ भी भय नहीं है।
मैंने अब इसी वस्तुस्वरूप के आधार पर सात भयों से निर्भय रहकर सम्पूर्ण प्रतिकूलताओं को सहजता से सहन कर लिया है।
क्या मुक्ति का मार्ग इतना सहज है?
इसप्रकार समता ने मुझे सर्वज्ञता के आधार पर निर्भय रहने का महामंत्र तो दिया ही है साथ ही कार्य सम्पन्न होने के स्वतंत्र षट्कारकों, चार अभावों, पाँच समवायों का स्वरूप समझाकर पर के कर्तृत्व से निर्भार भी किया है, पराधीनता से छुटकारा भी दिला दिया है।" ___ कर्मकिशोर ने कहा - "जीवराज! तुमसे यह सब सुनकर मैं - असमंजस में पड़ गया हूँ। तुम्हारा-हमारा अनादि का साथ था। लगता अब वह साथ शीघ्र ही छूटने वाला है। इतना दीर्घकालीन साथ-साथ छूटने का गम होना तो स्वाभाविक ही है, परन्तु तुम्हें निराकुल सुख की प्राप्ति होगी। संसार के दुःखों से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाओगे। अनन्तगुण प्रगट हो जायेंगे, सर्वज्ञता प्रगट होने से लोकालोक को एक साथ जानने की सामर्थ्य प्रगट हो जायेगी, परमात्मा बनकर जगत पूज्य हो जाओगे - इसका भारी हर्ष है।
हमारा क्या? हमें तो अनन्त जीवों का साथ सदा बना ही रहता है। हम तुम्हें सहर्ष विदाई देगें । तुम्हारे कल्याणकों के जोर-शोर से महोत्सव मनायेंगे। अब तुम जब तक संसार में रहोगे, यहाँ भी तुम्हारी सेवा में तत्पर रहकर तुम्हें संसार के एक से बढ़कर एक सुखद संयोग जुटायेंगे। हमें ऐसा मौका कहाँ मिलता है। बहुत कम जीव ऐसा सम्यक् पुरुषार्थ करते हैं। अधिकांश तो चौरासी लाख योनियों में ही जनम-मरण करते रहते हैं। धन्य है तुम्हें और तुम्हारी पत्नी समताश्री को, जिन्होंने मुक्तिमहल के नींव का शिलान्यास करने का संकल्प कर लिया है।" ___जीवराज ने कर्मकिशोर से अपनी प्रशंसा सुनकर कहा - "भैया! यह तो तुम्हारा बढ़प्पन है, जो हमारे बारे में ऐसा कहते हो। हमने ऐसा किया ही क्या है? बस, मात्र अपनी शक्ति को ही तो जाना-पहचाना है। देखो तो सही! राई की ओट में पहाड़ था। मेरी समझ में अब आ रहा है कि 'मुक्ति का मार्ग कितना सरल है, कितना सहज है? वस्तुतः मुक्त होने के लिए बाहर में तो कुछ नहीं करना है । पर में कुछ भी करने में
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