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________________ २८ नींव का पत्थर इसके विपरीत जिसे मैं जीवन भर चारित्र का विशालवृक्ष समझता रहा और उससे समान रूप फल पाने की प्रतीक्षा करता रहा, वह तो वस्तुतः चारित्र ही नहीं है, तो उसमें समतारूपी फल मिलेगा ही कहाँ से? वह तो सामान्यश्रावक का सदाचार है, जो दूर से देखने पर चारित्र जैसा ही दिखाई देता है, इसी कारण बहुतों को ऐसा भ्रम हो जाता है कि यही धर्म है। मैं भी उस भ्रम में भ्रमित हो गया था।" वैसे लौकिक दृष्टि से तो वह धर्माचरण भी यथास्थान आवश्यक है। उसका फल दुर्व्यसनों से और दुराचार से बचना है, सो वह भी उनसे तो बचा ही रहा । जिसप्रकार कोई बड़े नींबू और नारंगी के अन्तर को न जाने और दोनों को एक ही माने तो वह लोक की दृष्टि से मूर्ख ही माना जाता है। तथा जैसे कोई एरण्ड और पपीहा के पेड़ में बाहर से समानता देखकर एरण्ड को ही पपीता मान ले अथवा पपीता के पेड़ को ही एरण्ड समझ ले तो वह भी मूर्ख ही माना जाता है, उसी प्रकार यदि कोई शुभभाव रूप धर्माचरण को शुद्ध (वीतरागता) रूप धर्म समझ ले तो यह तो उसकी भूल ही है। यही स्थिति चारित्र और सदाचार की है। सदाचार को चारित्र नहीं माना जा सकता।" विराग को विचार मग्न देख माँ ने पूछा - "अरे ! तू यहाँ अकेला बैठा बैठा क्या सोच रहा है?" विराग बोला - “माँ ! धरम-धरम सब कहते हैं, पर धर्म के मर्म को बहुत कम व्यक्ति जानते हैं। मैं स्वयं अभी तक धर्म का मर्म नहीं जान पाया, भले ही सब लोग मुझे धर्मात्मा कहते हैं, क्योंकि वे मेरी मात्र बाहरी धार्मिक क्रियायें ही देखते हैं, मेरी अन्तरंग प्रवृत्ति कैसी है? इसका मेरे सिवाय अन्य किसी को क्या पता?' मैं यही सब सोच रहा हूँ।" ___माँ ने कहा - "यह तो बहुत अच्छी बात है। तेरा सोचना बिल्कुल सही है। जब तूने अपनी भूल समझ ली और हर कीमत पर सत्यधर्म पाना ही है यह ठान लिया है तो तुझे धर्म का मर्म शीघ्र समझ में आनेवाला ही है। इसमें जरा भी संदेह नहीं है।" पूर्वाग्रह के झाड़ की जड़ें गहरी नहीं होती बुन्देलखण्ड की प्रसिद्ध कहावत है, प्रचलित लोकोक्ति है कि - जैसे जिसके नाले-नादियाँ, वैसे उनके भरका ।' जैसे जिनके बाप-महतारी, वैसे उनके लरका ।' माता-पिता के संस्कार सन्तानों पर पड़ते हैं, इस बात का ज्ञान कराने वाली उक्त कहावत में कहा गया है कि - "जैसे छोटे-बड़े गहरेउथले नाले-नदियाँ होती हैं, उनके गढ्ढ़े भी वैसे ही छोटे-बड़े, गहरेउथले होते हैं। ___ज्योत्स्ना और विराग भी इसके अपवाद नहीं थे। जहाँ - ज्योत्स्ना पर माँ की परछाई पड़ी थी, वहीं विराग पर पिता के व्यक्तित्व की छाप थी। तभी तो विराग ने उच्च शिक्षा के लिए माँ के मना करने पर भी अपना आग्रह चालू रखा था । अन्त में माँ को ही मुड़ना पड़ा। माँ ने वस्तु -स्वातंत्र्य के सिद्धान्त की शरण में जाकर और बेटे की होनहार का विचार कर एवं अपनी छाती पर धैर्य की शिला धरकर उसे इस विश्वास के साथ परदेश जाने की अनुमति दी थी कि एक दिन विराग अवश्य वापिस आयेगा। बाद में जिसतरह जीवन के उत्तरार्द्ध में जीवराज को सद्बुद्धि आ गई और उसका मानवजीवन सार्थक हो गया। उसी तरह विराग भी विदेश से वापिस आ गया। जीवराज के लकवा की बीमारी से ग्रस्त हो जाने से माँ समता के ऊपर अपनी बेटी ज्योत्स्ना के जीवन को संभालने, उसे पढ़ाने और योग्य वर तथा धार्मिक घर तलाशने की जिम्मेदारी विशेष बढ़ गई थी। १. गढ्ढे २. संतानें (15)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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