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नींव का पत्थर
जब तक वह परदेश में रहा तो वहाँ भी माँ और गुरुजनों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए धर्माचरण तो करता रहा, परन्तु उसे अभी तक उस धर्माचरण के प्रयोजन का कुछ पता नहीं था। यदि उससे कोई पूछले कि तुम यह सब क्यों करते हो? क्या लाभ मिला है तुम्हें अब तक उस धर्माचरण के पालन से? और उसका वास्तविक फल क्या है? तो उनके, क्या-क्यों-किसलिए; आदि प्रश्नों का उसके पास कोई संतोषजनक समाधान नहीं था। बस, माँ और गुरुजनों ने जैसा/जो करने को कहा; आँख मीचकर उनके निर्देशों का पालन करता आ रहा था।
फिर क्या था - दो-चार घंटे विचार-विमर्श करके उन दोनों ने स्वदेश लौटने का निर्णय कर लिया और छह माह के अन्दर वापिस स्वदेश आ भी गये। एक दिन उसने स्वयं सोचा - "अभी तक उसे वह धर्म हाथ नहीं लगा, जिसके फल में कषायें कृश होती हैं, विषय वासनायें क्षीण होती हैं, राग-द्वेष की आग बुझती है, परपदार्थों में इष्टानिष्ट कल्पनायें नहीं होतीं। उसने सुना था कि धर्म के फल में यह सब होता है, पर उसमें अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ।
वह सोचता है - "अभी भी बात-बात में क्रोध आ जाता है, छोटी-छोटी बातों से मुझे मान-अपमान की फीलिंग होने लगती है, यश-प्रतिष्ठा का लोभी भी मैं कम नहीं हूँ, इस हेतु जो भी दाव-पेंच करना पड़ते हैं, करने में पीछे नहीं रहता। ___ मैंने यह भी सुना है कि धर्मरूपी वृक्ष से निराकुल सुख और आत्मशान्ति के ऐसे मधुर फल प्राप्त होते हैं जिन्हें पाकर जीव अनन्त काल तक के लिए अनन्त सुखी हो जाता है। पर मुझे वे सुख-शान्ति के फल आज तक प्राप्त नहीं हुए, जबकि मैं धर्म के लिए पूर्ण समर्पित हूँ। मेरी यही एक ज्वलन्त समस्या है, एतदर्थ मुझे और क्या करना होगा? यह प्रश्न उसके सामने ज्यों का त्यों खड़ा है। १. छहढाला, तीसरी ढाल छन्द-१
वही ढाक के तीन पात
मेरे साथ तो अब तक वही 'ढाक के तीन पात' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। जिसतरह दिन-रात पानी बरसने पर भी ढाक की एक टहनी में तीन पत्ते ही निकलते हैं, उसी तरह इतना सब कुछ करते हुए भी मेरे पल्ले भी निराकुल सुख-शान्ति के नाम पर विशेष कुछ भी नहीं पड़ रहा है। वैसे ही मोह-माया, वैसी ही कषायें, वही विषय वासना कहीं कोई भी फर्क तो नहीं पड़ रहा है। आखिर ऐसा क्यों होता है? ____ मैं तो छोटे-छोटे प्रतिकूल प्रसंगों में आज भी आग बबूला हो जाता हूँ। बदले की भावना इतनी प्रबलरूप ले लेती है कि मरने-मारने को भी तैयार हो जाता हूँ। ____ मुझे इस स्थिति में देखकर लोग कहते हैं इन धर्मात्माओं से तो हम अधर्मात्मा ही अच्छे हैं, भले धर्म का ढोंग नहीं करते; पर क्रोधावेश में ऐसे बे-काबू भी नहीं होते। वे कहते हैं - 'ये कैसे क्षमाधर्म के धारक हैं इन पर तो 'मुँह में राम बगल में छुरी' वाली कहावत चरितार्थ होती है। 'उत्तम क्षमा-क्षमा' कहते रहते हैं और क्रोध करते रहते हैं।
मैंने तो एक बार यह भी सुना था कि 'धर्म साधना से पाप के बीजरूप परिग्रह आदि वैभव के सुखद संयोगों की ममता टूटकर समता भाव जागृत हो जाता है। आत्मध्यान और तत्त्व चिन्तन में चित्त एकाग्र होता है। राग-द्वेष रहित होकर वीतरागता की ओर अग्रसर होते हैं; परन्तु मेरे जीवन में ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ। इसकारण आज भी वह प्रश्न ज्यों का त्यों निरुत्तरित है।
कैसा होगा वह धर्म का स्वरूप, जिससे जन्म-जरा, भूख, प्यास, रोग, शोक, मद, मोह आदि दोषों का अभाव होकर वीतराग भाव जागृत होता है? आत्मा-परमात्मा बन जाता है। आत्मा अतीन्द्रिय, निराकुल सुख सरोवर में निमग्न होकर सदैव परम शान्ति और शीतलता का अनुभव करता है। धर्माचार्य तो यह कहते हैं कि - 'धर्म से तो समता भाव के साथ त्रैकालिक स्थाई आनन्द का झरना झरता रहता है। मैं माँ के सान्निध्य में रहकर उस धर्म को समझने का प्रयास करूंगा।"
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