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________________ मूल में भूल गई है। उपादान - अर्थात् वस्तु की सहज शक्ति और आत्मा पर से भिन्न है, देहादिक किसी परवस्तु से आत्मा का कल्याण नहीं होता इसप्रकार श्रद्धा ज्ञान करना, सो उपादान कारण है। निमित्त - अर्थात् अनुकूल संयोगी अन्य वस्तु । जब आत्मा सच्ची श्रद्धा - ज्ञान करता है, तब जो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु उपस्थित हों, उन्हें निमित्त कहा जाता है। देव-गुरु-शास्त्र मुझ से भिन्न हैं और पुण्य-पाप के भाव भी मैं नहीं हूँ । ज्ञानादि अनन्त गुणों का पिण्ड हूँ। इसप्रकार जीव अपनी शक्ति की सम्भाल करता है, सो उपादान कारण है और अपनी शक्ति उपादान है। यहाँ पर उपादान और उपादान कारण का भेद बताया गया है। उपादान त्रिकाली द्रव्य और उपादान कारण पर्याय है। जो जीव उपादान शक्ति की सम्भाल कर उपादान कारण को करता है, उसके मुक्तिरूपी कार्य अवश्य प्रकट होता है। आगे ४२ वें दोहे में इस सम्बन्ध में कहा गया है कि 'उपादान और निमित्त तो सभी जीवों के होता है; किन्तु जो वीर है, वह निज शक्ति को सम्भाल लेता है और भवसागर को पार करता है।' यहाँ पर निज शक्ति की सम्भाल करना सो उपादान कारण है और वही मुक्ति का कारण है। आत्मा शक्ति तो बहुत कुछ है, किन्तु जब स्वयं उस शक्ति की सम्भाल करे, तब श्रद्धा-ज्ञान-स्थिरतारूप मुक्ति का उपाय हो; किन्तु अपनी शक्ति की सम्भाल किए बिना मुक्ति का उपाय नहीं हो सकता । यही बताने के लिए इस संवाद में उपादान और निमित्त की एक-दूसरे के विरुद्ध युक्तियाँ दी गई हैं और इस सम्बन्ध में भी सर्वज्ञ भगवान का अन्तिम निर्णय दिया गया है, जिससे उपर्युक्त कथन सिद्ध होता है। आत्मा का उपादान - स्वभाव, मन, वाणी और देहरहित है। उसे किसी मूल में भूल परवस्तु की सहायता नहीं है ऐसी सहजशक्ति का जो भान करता है, वह उपादान - स्वभाव को जानता है। उपादान - स्वभाव को जाना, सो उपादान कारण हुआ और उस समय उपस्थित देव - शास्त्र - गुरु इत्यादि निमित्त कहलाता है। उपादान - निमित्त की यह बात बड़ी अच्छी और समझने योग्य है। शास्त्राधार से अपूर्व कथन किया गया है, उसमें पहले मांगलिक रूप में निम्नलिखित दोहा कहा गया है - (दोहा) पाद प्रणमि जिनदेव के, एक उक्ति उपजाय । उपादान अरु निमित्त को, कहूँ संवाद बनाय ।। १ ।। अर्थ - जिनेन्द्रदेव के चरणों में प्रणाम करके एक अपूर्व कथन तैयार करता हूँ - उपादान और निमित्त का संवाद बनाकर उसे कहता हूँ । इस बात को समझने के लिए यदि जीव गहरा उतरकर विचार करे तो उसका रहस्य ज्ञात हो। जैसे आधे मन की दही की छाछ में मक्खन निकालने के लिए यदि ऊपर ही ऊपर हाथ फेरा जाये तो मक्खन नहीं निकलता, किन्तु छाछ को विलोकर भीतर नीचे तक हाथ डालकर मथे, तब मक्खन ऊपर आता है; किन्तु यदि सर्दी के दिनों में ठंडी के कारण आलस्य करके छाछ के भीतर हाथ न डाले तो छाछ में मक्खन नहीं निकलेगा; इसीप्रकार जैनशासन में जैन परम्परा सर्वज्ञदेव के द्वारा कहे गये तत्त्वों में से यदि गहरी तर्कबुद्धि के द्वारा गहरा विचार करके मक्खन निकाले तो मुक्ति हो। उपर्युक्त दोहे में 'उक्ति' शब्द का प्रयोग किया है उसका अर्थ इसप्रकार किया है। जिनदेव सर्वज्ञ वीतराग भगवान के चरणकमल में प्रणाम करके अर्थात् विशेष प्रकार से नमस्कार करके मैं एक युक्ति बनाता हूँ अर्थात् तर्क का दोहन करता हूँ। इस संवाद में युक्ति पुरस्सर बात कही गई है, इसलिए समझनेवाले को भी तर्क और युक्ति के द्वारा समझने का परिश्रम करना होगा। यों ही ऊपर ही ऊपर से सुन लेने में समझ में नहीं आयेगा। जैसे छाछ को बिलोने से क्
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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