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________________ मूल में भूल बुद्धि के प्रकाशानुसार यह रचना की है अथवा अपने ज्ञान के प्रकाश के लिए यह रचना की है। उपादान-निमित्त के बीच के बँटवारे के कथन का यह जो अधिकार कहा गया है, वह सर्वज्ञदेव की परम्परा से कथित तत्त्व का सार है और उसमें से अपनी बुद्धि के अनुसार जो मैं समझ सका हूँ, वही मैंने इस संवाद में प्रकट किया है। रचनाकाल संवत् विक्रम भूप को, सत्तरहसे पंचास । फाल्गुन पहले पक्ष में, दशों दिशा परकाश ।।४७।। अर्थ :- विक्रम संवत् १७५० के फाल्गुन मास के प्रथम पक्ष में इस संवाद की रचना की गई। जिसप्रकार पूर्णिमा के चन्द्रमा का प्रकाश दशों दिशाओं में फैल जाता है, उसीप्रकार यह उपादान-निमित्त सम्बन्धी तत्त्वचर्चा दशों दिशाओं में तत्त्व का प्रकाश करेगी - यत्र-तत्र इसी की चर्चा होगी। अर्थात् यह तत्त्वज्ञान सर्वत्र प्रकाशित होगा - इसप्रकार अन्तिम मंगल के साथ यह अधिकार पूर्ण होता है। मूलमेंभूल पण्डित बनारसीदासजी कृत उपादान-निमित्त संवाद पर किये गये परम पूज्य श्री कानजी स्वामी के प्रवचन वस्तु का स्वभाव स्वतंत्र है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वतंत्र स्वभाव से ही अपना कार्य कर रही है। उपादान और निमित्त दोनों स्वतंत्र भिन्न वस्तुएँ हैं। जब उपादान अपना कार्य करता है, तब निमित्त मात्र होता है। इतना ही उपादान-निमित्त का मेल है, उसकी जगह किंचित्मात्र भी कर्ता-कर्म संबंध मानना, सो अज्ञान है। पण्डित बनारसीदासजी ने अपने दोहों में संक्षेप में उपादान-निमित्त का स्वरूप बहुत ही सुन्दर रूप में बताया है। शिष्य का प्रश्न गरु उपदेश निमित्त बिन, उपादान बलहीन । ज्यों नर दूजे पाँव बिन, चलवे को आधीन ।।१।। हो जाने था एक ही, उपादान सों काज। थकै सहाई पौन बिन, पानी माहि जहाज ।।२।। अर्थ :- जैसे आदमी दूसरे पैर के बिना नहीं चल सकता, उसीप्रकार उपादान (आत्मा स्वयं) भी सद्गुरु के उपदेश के निमित्त बिना असमर्थ है। जो यह मानते हैं कि मात्र उपादान से ही काम हो जाता है, वे ठीक नहीं। (जैसे पानी में पवन की सहायता के बिना जहाज थक जाता है, उसीप्रकार निमित्त की सहायता के बिना उपादान अकेला कार्य नहीं कर सकता।) इसप्रकार अज्ञानियों की मान्यता है, जो कि ठीक नहीं है। उपादान-निमित्त के स्वरूप की जिज्ञासावाला शिष्य यह बात पूछता है। निमित्त और उपादान की बात को कुछ ध्यान में रखकर वह पूछता है कि उपादान क्या है और निमित्त क्या है ? किन्तु जिसे कुछ खबर ही न हो और जिसे जिज्ञासा ही न होती हो वह क्या पूछेगा? जिसने निमित्त-उपादान की बात सुनी है, किन्तु अभी निर्णय नहीं मूल में भूल (दूसरा विभाग)
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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