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________________ मूल में भूल पर पदार्थ में निमित्तारोप होता है। निमित्त तो आरोप मात्र कारण ही है, उसकी उपादान में तीनों काल नास्ति है और अस्ति नास्तिरूप ऐसा अनेकान्त वस्तुस्वरूप है; परन्तु एक पदार्थ दूसरे पदार्थ में कुछ कर सकता है इसप्रकार की मान्यता से पदार्थों की स्वतंत्रता नहीं रहती और एकान्त आ जाता है। इसलिए उपादान - निमित्त के संवाद के द्वारा जो वस्तुस्वरूप समझाया गया है, उसे जानकर हे भव्य जीव ! तुम खेद का परित्याग करो। परद्रव्य की सहायता आवश्यक है इस मान्यता का परित्याग करो। अपनी आत्मा को पराधीन मानना ही सबसे बड़ा खेद है। अब आत्मा के स्वाधीन स्वरूप को जानकर उस खेद का परित्याग करो; क्योंकि श्री जिनागम का प्रत्येक वचन वस्तुस्वरूप को स्वतंत्र घोषित करता है और जीव को सत्य पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करता है। यह बात विशेष ध्यान में रखना चाहिए कि निमित्त वस्तु है तो अवश्य। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु को न पहचाने और कहे कि निमित्त का क्या काम है ? उपादान स्वतंत्र है। इसप्रकार उपादान को जाने बिना यदि स्वच्छन्द होकर प्रवृत्ति करे तो इससे उसका अज्ञान ही दृढ़ होगा। ऐसे जीव के धर्म तो हो ही नहीं सकता, उलटा शुभराग को छोड़कर अशुभराग में प्रवृत्ति करेगा। श्रीमद् राजचन्द्रजी ने आत्मसिद्धि में कहा है कि - उपादाननुं नाम लइ, ये जे तजे निमित्त । पामे नहिं परमार्थ ने, रहे भ्रान्ति मां स्थित । । उपादान का नाम ले, यदि यह तजे निमित्त । पाये नहिं परमार्थ को रहे भ्रान्ति में स्थित । ध्यान रहे कि यहाँ उपादान का मात्र नाम लेकर जो निमित्त का निषेध करता है - ऐसे जीव की बात है, किन्तु जो उपादान के भाव को समझकर मूल में भूल पण्डित बनारसीदासजी कृत उपादान - निमित्त दोहा 0 गुरु उपदेश निमित्त बन उपादान बलहीन । ज्यों नर दूजे पांव बिन चलवे को आधीन ॥ १ ॥ हों जाने था एक ही उपादान सों काज । थकै सहाई पौन बिन पानी मांहि जहाज ||२॥ ज्ञान नैन किरिया चरण दोऊ शिवमग धार । उपादान निश्चय जहां तहां निमित्त व्यवहार ||३|| उपादान निजगुण जहां तहां निमित्त पर होय । भेद ज्ञान परमाण विधि विरला बूझे कोय ॥ ४ ॥ उपादान बल जहं तहां नहिं निमित्त को दाव । एक चक्र सों रथ चले रवि को यह स्वभाव ॥ ५ ॥ सबै वस्तु असहाय जहां तहां निमित्त है कौन । ज्यों जहाज परवाह में तिरै सहज बिन पौन ॥ ६ ॥ उपादान विधि निरवचन है निमित्त उपदेश । वसे जु जैसे देश में धरे सु तैसे भेष ।।७।। उपादान - निमित्त संबंधी सम्यग्ज्ञान के अभाव में या तो निमित्त को कर्त्ता मान लिया जाता है या फिर उसकी सत्ता से इन्कार किया जाने लगता है। निमित्तोपादान : एक अनुशीलन पृष्ठ- २
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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