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________________ (८७ मूल में भूल जैसे हैं, उन्हें उनके गुणों के द्वारा जानकर अपने उपादान स्वभाव को पहचानकर निरन्तर अपने शुद्ध उपादान का आलम्बन (आश्रय) करना चाहिए। १. उपादान-निमित्त को जान लेना चाहिए, किन्तु यह नहीं समझना चाहिए कि निमित्त के कारण उपादान में कोई कार्य होता है अथवा निमित्तउपादान का कोई कार्य कर सकता है। २. मात्र उपादान से ही कार्य होता है, निमित्त कुछ नहीं करता, इसलिए निमित्त कुछ है ही नहीं - यह भी नहीं मानना चाहिए। ३. निमित्त को जानना तो चाहिए, किन्तु वह उपादान से भिन्न पदार्थ है; इसलिए वह उपादान में किसी भी प्रकार की सहायता अथवा असर नहीं कर सकता - इसप्रकार समझना, सो सम्यग्ज्ञान है। यदि निमित्त की उपस्थिति के कारण कार्य का होना माने तो वह मिथ्याज्ञान है। ___ इसप्रकार इस संवाद के द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि उपादान वस्तु की निजशक्ति है और पर संयोग निमित्त है। निमित्त जीव का (उपादान का) कुछ भी कार्य नहीं करता, किन्तु उपादान स्वयं ही अपना कार्य करता है। सारे संवाद में कहीं भी यह बात स्वीकार नहीं की गई है कि निमित्त से कार्य होता है। विपरीतदशा में विकार भी जीव स्वयं ही करता है, निमित्त विकार नहीं कराता; परन्तु इस संवाद में मुख्यत: औचित्य की बात ली गई है। सम्यग्दर्शन से सिद्धदशा तक जीव की ही शक्ति से कार्य होता है - यह सिद्ध किया गया है, किन्तु निमित्त की बलवत्ता कहीं भी नहीं मानी गई है। इससे यदि कोई जीव अपनी नासमझी के कारण यह मान बैठे कि यह तो एकान्त हो गया. सर्वत्र उपादान से ही कार्य हो और निमित्त से कहीं भी न हो- इसमें अनेकान्तपन कहाँ है ? तो ग्रन्थकार कहते हैं कि इसमें स्वतंत्र वस्तुस्वभाव सिद्ध किया है और निमित्त का पक्ष नहीं किया। (निमित्त का यथार्थ ज्ञान है) इसलिए खेद नहीं करना चाहिए, मूल मेंभूल किन्तु उत्साहपूर्वक समझकर इस बात को स्वीकार करना चाहिए; क्योंकि इस बात की साख श्री जिनागम से मिलती है। ___ श्री जिनागम वस्तु को सदा स्वतंत्र बतलाता है। वस्तुस्वरूप ही स्वतंत्र है। जिनेन्द्रदेव का प्रत्येक वचन पुरुषार्थ की जागृति की वृद्धि के लिए ही है। यदि जिनेन्द्रदेव के एक भी वचन में से पुरुषार्थ को गौण करने का आशय निकाला जाये तो मानना चाहिए कि वह जीव जिनेन्द्रदेव के उपदेश को समझा ही नहीं है। निमित्तों का और कर्मों का ज्ञान पुरुषार्थ में अटक जाने के लिए नहीं कहा है, किन्तु निमित्तरूप पर वस्तुएँ हैं और जीव के परिणाम भी उसके पक्ष से अनेक प्रकार विकारी होते हैं - यह जानकर अपने निज परिणाम की संभाल करने के लिए निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का ज्ञान कराया है। वह ज्ञान सत्य पुरुषार्थ की वृद्धि के लिए ही है, किन्तु जो जीव यह कहता है कि 'तीव्र कर्मोदय आकर मुझे हैरान करेगा तो मेरा पुरुषार्थ नहीं चल सकेगा', उस जीव को स्वयं पुरुषार्थ नहीं करना है; इसीलिए वह पुरुषार्थ हीनता की बातें करता है। अरे भाई ! पहले जब तुझे कर्मों की खबर नहीं थी, तब तू ऐसा तर्क नहीं करता था और अब कर्मों का ज्ञान होने पर तू पुरुषार्थ की शंका करता है तो क्या अब निमित्त का यथार्थ ज्ञान होने से तुझे हानि होगी, इसलिए हे जीव ! निमित्त कर्मों की ओर का लक्ष्य छोड़कर तू अपने ज्ञान को उपादान के लक्ष्य में लगाकर सच्चा पुरुषार्थ कर । तू जितना पुरुषार्थ करेगा, उतना काम आयेगा। तेरे पुरुषार्थ को रोकने के लिए विश्व में कोई समर्थ नहीं है। जगत में सब कुछ स्वतंत्र है। रजकण से लेकर सिद्ध तक सभी जड़-चेतन पदार्थ स्वतंत्र हैं। एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ किंचित्मात्र भी संबंध नहीं है, तब फिर किसी भी निमित्तरूप पदार्थ हों, वे उपादान का क्या कर सकते हैं ? उपादान स्वयं जिसप्रकार परिणमन करता है, उसप्रकार
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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