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मूल में भूल
(२६)
के कारण यह तर्क करते हैं कि जो यह कहते हैं क्या यही एक मार्ग है और जगत के समस्त मार्ग व्यर्थ हैं-गलत हैं ?
भगवान की सभा में उपशम-क्षयोपशम सम्यक्त्वी जीव होते हैं, वे भी यदि दृढ़ पुरुषार्थ के द्वारा स्वयं क्षायिक सम्यक्त्व करें, तब ही होता है और बहुत से स्वयं नहीं करते; इसलिए उन्हें नहीं होता। तात्पर्य यह है कि निमित्त का बल है ही नहीं। यदि निमित्त में कोई शक्ति होती तो जो भगवान के पास गये, उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं हुआ ? समवशरण में जो जीव भगवान के पास जाते हैं, वे सभी समझ ही जाते हों, सो बात नहीं है; किन्तु जिसका धनी (आत्मा) समझकर सुलटा होता है, उसे ऐसी आत्मप्रतीति प्रकट होती है कि जो फिर कभी पीछे नहीं हटती ।
अहो ! परम महिमावंत परिपूर्ण आत्मस्वभाव ! इस स्वभाव का अवलोकन करते-करते ही केवलज्ञान होता है जो जीव सुलटा होकर ऐसी दृढ़ प्रतीति करता है, उसी के होता है; किन्तु जो भगवान की वाणी को सुनकर भी सुलटा नहीं होता, उसे सम्यक्तव नहीं होता। इससे सिद्ध है निमित्त का कोई बल नहीं है। जिसके अपने पैरों में शक्ति नहीं है, वह दूसरे के आधार पर कैसे खड़ा रह सकता है ? इसीप्रकार अपनी आत्मा की शक्ति के बिना, यथार्थ समझ के बिना साक्षात् भगवान के पास जाकर भी अपने भीतर में से विशेष स्वच्छन्दी हुआ, इसलिए सच्चा ज्ञान नहीं हुआ । इसलिए भगवान के पास जाने से क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, किन्तु वह उपादान की जागृति से होता है।
अब निमित्त प्रकारान्तर से कहता है
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हिंसादिक पापन किये, जीव नर्क में जाहिं ।
जो निमित्त नहिं काम को, तो इम काहे कहाहिं ।। १२ ।।
अर्थ :- निमित्त कहता है कि यदि निमित्त कार्यकारी न हो तो फिर यह क्यों कहा जाता है कि हिंसादिक पाप करने से जीव नरक में जाता है
?
मूल में भूल
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहादि से जीव नरक में जाता है। इसमें निमित्त का ही बल है। हिंसा में पर जीव का, झूठ में भाषा का, परिग्रह में परवस्तु का, चोरी में रुपया-पैसा का और कुशील में शरीरादिरूप निमित्त की जरूरत पड़ती है या नहीं ? इससे स्पष्ट है कि निमित्त ही नरक में ले जाता है। परवस्तु के निमित्त से ही हिंसादि पाप होते हैं; केवल आत्मा से हिंसा चोरी आदि पाप कर्म नहीं हो सकते। इसलिए यदि निमित्त का बल न हो तो हिंसादि करनेवाले नरक में जाते हैं, यह क्यों कर बनेगा ? परवस्तु ही उनके नरक का कारण होती है; इसलिए वहाँ निमित्त का बल है या नहीं इसप्रकार निमित्त ने तर्क उपस्थित किया। उसका समाधान करता हुआ उपादान कहता है - हिंसा में उपयोग जहाँ, रहे ब्रह्म के राच । तेई नर्क में जात हैं, मुनि नहिं जाहिं कदाच ।।१३। अर्थ :- हिंसादि में जिसका उपयोग (चैतन्यपरिणाम) हो और जो आत्मा उसमें रचा-पचा रहे वही नर्क में जाता है। भावमुनि कदापि नरक में नहीं जाते।
पर जीव की हिंसा और जड़ का परिग्रह इत्यादि में जीव को यदि ममत्व रूप अशुभभाव होता है तो ही वह नरक में जाता है।
किसी परवस्तु के कारण से अथवा पर जीव मर गया इस कारण से कोई जीव नरक में नहीं जाता; किन्तु जिन जीवों का उपयोग अशुभ परिणामों में लीन हो रहा है, वे ही नरक में जाते हैं। पर जीव के मरने से अथवा राजपाट के अनेक संयोग मिलने से जीव नरक में नहीं जाता, किन्तु मैंने राज किया, मैंने पर जीव को मारा, यह रुपया पैसा मेरा है - इसप्रकार के ममत्व-परिणाम से ही जीव नरक में जाता है। भावमुनि कभी भी नरक में नहीं जाते । कभी मुनि के पैर के नीचे कोई जीव आ जाये और दबकर मर