SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल में भूल तो क्षायिक सम्यक्त्व है। निमित्त का वकील तर्क करता है कि श्रेणिकराजा, भरत चक्रवर्ती इत्यादि को केवली के निकट ही क्षायिक सम्यक्त्व हुआ था, देखो ! यह है कि निमित्त का जोर । शास्त्रों में लिखा है कि तीर्थंकर भगवान, केवली भगवान अथवा श्रुतकेवली (जिनशासन के बाह्य और अन्तरंग श्रुतज्ञान में परिपूर्ण मुनिराज ) जहाँ विराजित हों वहाँ उनके चरण-कमल में ही क्षायिक सम्यक्त्व होता है; उनके अभाव में नहीं होता, इसलिए निमित्त ही बलवान है। अन्य निमित्त हो तो क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता। हे उपादान ! यदि तेरी ही शक्ति से काम होता है तो तीर्थंकरादि के अभाव में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं होता ? निमित्त नहीं है, इसलिए नहीं होता अर्थात् निमित्त ही बलवान है। इसप्रकार निमित्त का तर्क है। वह तर्क क्यों कर गलत है, वह आगे के दोहे में बताया जायेगा । (२४ तीर्थंकर केवली तथा श्रुतकेवली के समीप ही सब जीवों को क्षायिक सम्यक्त्व होता है - ऐसा एकान्त नहीं है। कई जीव स्वयं श्रुतकेवली होकर स्वतः क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट करते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व निमित्त के बल से हुआ है या उपादान के बल से ? इसे समझने में निमित्त पक्ष ने जो भूल की है, वह आगे बताई जायेगी। प्रथम एक बार सत् निमित्त के पास से स्वयं योग्य होकर श्रवण किया हो, किन्तु उस समय सम्यक्त्व प्राप्त न किया हो तो भी बाद में सत् निमित्त का समीप न होने पर भी जीव स्वयं अन्तरंग से जागृत होकर उपशमक्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है; किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व तो निमित्त की उपस्थिति में ही होता है। साक्षात् तीर्थंकर की सभा हो और तत्त्वों के गम्भीर न्याय की धारा प्रवाहित हो रही हो, उसे सुनने पर जीव को स्वभाव की परम महिमा प्राप्त होती है। अहा ! ऐसा परिपूर्ण ज्ञायकस्वरूपी भगवान मैं । एक विकल्प का अंश भी मेरा स्वरूप नहीं है, मैं स्वतंत्र स्वाधीन परिपूर्ण मूल में भूल हूँ । इसप्रकार अन्तर से निज आत्मस्वभाव की अप्रतिहत प्रतीति जागृत होने पर जीव को क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है; वहाँ तीर्थंकर केवली अथवा श्रुतकेवली निमित्त हैं, इसलिए निमित्त यह कहता है कि आत्मा को क्षायिक सम्यक्त्व में निमित्त सहायक होना ही चाहिए, यह मेरा बल है। इसके उत्तर में उपादान कहता है कि - केवल अरु मुनिराज के, पास रहें बहु लोय । जाको सुलट्यो धनी, क्षायिक ताकों होय ।। ११ ।। उपादान कहता है कि केवली और श्रुतकेवली भगवान के पास बहुत से लोग रहते हैं, किन्तु जिसका धनी (आत्मा) सुलटा होता है, उसी को क्षायिक सम्यक्त्व होता है। उपादान निमित्त से कहता है कि अरे सुन, सुन ! केवली भगवान और उस भव में मोक्ष जानेवाले श्रुतकेवलियों के निकट तो बहुत से लोग रहते हैं, बहुत से जीव साक्षात् तीर्थंकर के अति निकट जा आये, किन्तु उन सबको क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हुआ। जिसका आत्मा सुलटा हुआ था, वह स्वयं अपनी शक्ति से क्षायिक सम्यक्त्व पा गया और जिसका आत्मा सुलटा नहीं था, वह क्षायिक सम्यक्त्व नहीं पा सका। इससे सिद्ध होता है कि उपादान से ही क्षायिक सम्यक्त्व होता है, निमित्त से नहीं । जो जीव धर्म को समझते हैं, वे अपने पुरुषार्थ से समझते हैं। त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर जिनके यहाँ जन्म लेते हैं, वे माता-पिता मोक्षाधिकारी होते ही हैं, तथापि वे अपने स्वतंत्र पुरुषार्थ से मोक्ष प्राप्त करते हैं। कुल के कारण अथवा तीर्थंकर भगवान के कारण मोक्ष नहीं पाते । तीर्थंकर भगवान की सभा में तो बहुत से जीव अनेक बार गये, किन्तु जो स्वयं कुछ नहीं समझे, वे कोरे कोरे वापिस आ गये। एक भी यथार्थ बात को अन्तरंग में नहीं बिठाया और जैसा गया था, वैसा ही अज्ञानता में वापिस आ गया। इतना ही नहीं, किन्तु कई जीव तो अपनी विपरीत बुद्धि
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy