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________________ (कुन्दकुन्द शतक कुन्दकुन्द शतक) सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव । चउरो चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। सम्यक् सुदर्शन ज्ञान तप समभाव सम्यक् आचरण । सब आतमा की अवस्थाएँ आतमा ही है शरण ।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप - ये चार आराधनाएँ भी आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं; इसलिए मेरे लिए तो एक आत्मा ही शरण है। तात्पर्य यह है कि निश्चय से विचार करें तो एकमात्र निज भगवान आत्मा ही शरण है, क्योंकि आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होती है। अहमेक्को खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्ण परमाणुमेत्तं पि।। मैं एक दर्शन ज्ञान मय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं। ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ।। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ एवं सदा ही ज्ञान-दर्शनमय अरूपी तत्त्व हूँ। मुझसे भिन्न अन्य समस्त द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरे नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि मैं समस्त परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान-दर्शनस्वरूपी, अरूपी, एक, परमशुद्ध तत्त्व हूँ। अन्य परद्रव्यों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मको। णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ।। निर्ग्रन्थ है नीराग है निःशल्य है निर्दोष है। निर्मान-मद यह आतमा निष्काम है निष्क्रोध है।। भगवान आत्मा परिग्रह से रहित है, राग से रहित है, माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यों से रहित है, सर्व दोषों से मुक्त है, काम-क्रोध से रहित है और मद-मान से भी रहित है। अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेतनागुणमसद । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं ।। चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है। जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है।। भगवान आत्मा में न रस है, न रूप है, न गंध है और न शब्द है; अतः यह आत्मा अव्यक्त है, इन्द्रियग्राह्य नहीं है । हे भव्यो ! किसी भी लिंग (चिह्न) से ग्रहण न होने वाले, चेतना गुण वाले एवं अनिर्दिष्ट (न कहे जा सकने वाले) संस्थान (आकार) वाले इस भगवान आत्मा को जानो। णिइंडो णिइंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ।। निर्दण्ड है निर्द्वन्द्व है यह निरालम्बी आतमा। निर्देह है निर्मूढ है निर्भयी निर्मम आतमा ।। भगवान आत्मा हिंसादि पापों रूप दण्ड से रहित है, मानसिक द्वन्द्वों से रहित है, ममत्वपरिणाम से रहित है, शरीर से रहित है, आलम्बन से रहित है, राग से रहित है, दोषों से रहित है, मूढ़ता और भय से भी रहित है। ३. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १०५ ४. नियमसार, गाथा ४४ ५. नियमसार, गाथा ४३ कह सो धिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु धिप्पदे अप्पा। जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो ।। जिस भाँति प्रज्ञाछैनी से पर से विभक्त किया इसे। उस भाँति प्रज्ञाछैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ।। प्रश्न - भगवान आत्मा को किस प्रकार ग्रहण किया जाय? उत्तर - भगवान आत्मा का ग्रहण बुद्धिरूपी छैनी से किया जाना चाहिए। जिस प्रकार बुद्धिरूपी छैनी से भगवान आत्मा को परपदार्थों से भिन्न किया है, उसी प्रकार बुद्धिरूपी छैनी से ही भगवान आत्मा को ग्रहण करना चाहिए। ६. समयसार, गाथा ३८ ७. समयसार, गाथा ४९ ८. समयसार, गाथा २९६
SR No.008358
Book TitleKundkunda Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 KB
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