________________
(कुन्दकुन्द शतक
कुन्दकुन्द शतक)
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।। चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है।
दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम समताभाव है।। वास्तव में तो चारित्र ही धर्म है। यह धर्म साम्यभाव रूप है तथा मोह (मिथ्यात्व) और क्षोभ (राग-द्वेष) से रहित आत्मा का परिणाम ही साम्य है - ऐसा कहा गया है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन सहित चारित्र ही वास्तव में धर्म है।
(७०) धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ।। प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा।
पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा ।। धर्म से परिणमित स्वभाववाला आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो मोक्षसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग में युक्त हो तो स्वर्गसुख को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि मोक्ष का कारण शुद्धोपयोग ही है शुभोपयोग नहीं।
(७२) समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोठ्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।। कांच-कंचन बन्धु-अरि सुख-दुःख प्रशंसा-निन्द में।
शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ।। जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान हैं, सुख-दुःख समान हैं, प्रशंसा-निन्दा समान हैं, पत्थर और सोना समान हैं, जीवन और मरण भी समान हैं, वही सच्चा श्रमण है। तात्पर्य यह है कि अनुकूल-प्रतिकूल सभी प्रसंगों में समताभाव रखना ही श्रमणपना है।
(७३) भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो य। इय णाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होह ।। भावलिंगी सुखी होते द्रव्यलिंगी दुःख लहें।
गुण-दोष को पहिचान कर सब भाव से मुनि पद गहें।। भावश्रमण सुख को प्राप्त करता है और द्रव्यश्रमण दुख को प्राप्त करता है। इस प्रकार गुण-दोषों को जानकर हे जीव! तू भावसहित संयमी बन; कोरा द्रव्यसंयम धारण करने से कोई लाभ नहीं।
(७४) भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं । पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए ।। मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से।
आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से ।। पहले मिथ्यात्वादि दोष छोड़कर भाव से नग्न हो, पीछे नग्न दिगम्बर द्रव्यलिंग धारण करे - ऐसी जिनाज्ञा है। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व छोड़े बिना, सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्राप्त किए बिना, नग्नवेष धारण कर लेने से कोई लाभ नहीं है, अपितु हानि ही है।
समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि । तेस वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ।।
शुभोपयोगी श्रमण हैं शुद्धोपयोगी भी श्रमण।
शुद्धोपयोगी निराम्रव हैं आस्रवी हैं शेष सब ।। श्रमण दो प्रकार के होते हैं :- शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी। शुद्धोपयोगी श्रमण निरास्रव होते हैं, शेष सास्रव होते हैं - ऐसा शास्त्रों में कहा है। तात्पर्य यह है कि शुभोपयोग से आस्रव व बंध ही होता है; संवर, निर्जरा व मोक्ष नहीं। इसीप्रकार शुद्धोपयोग से संवर, निर्जरा व मोक्ष ही होता है; आस्रव व बंध नहीं। ६९. प्रवचनसार, गाथा ७
७०. प्रवचनसार, गाथा ११ ७१. प्रवचनसार, गाथा २४५
७३. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा १२७
७२. प्रवचनसार, गाथा २४१ ७४. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा ७३