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कुन्दकुन्द शतक)
(कुन्दकुन्द शतक (५७) दव्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि। अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणाणं हवदि तम्हा ।।
द्रव्य बिन गुण हों नहीं गुण बिना द्रव्य नहीं बने।
गुण द्रव्य अव्यतिरिक्त हैं - यह कहा जिनवर देव ने।। द्रव्य के बिना गुण नहीं होते और गुणों के बिना द्रव्य नहीं होता; क्योंकि दोनों में अव्यक्तिरिक्त भाव (अभिन्नपना) है।
गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। अतः द्रव्य और गुणों का भिन्न-भिन्न होना संभव नहीं है। द्रव्य और गुणों में मात्र अंशी-अंश का भेद है।
(६०) जे णेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया। ते होंति असब्भ्दा पज्जाया णाणपच्चक्खा ।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं।
असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ।। जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो पर्यायें उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं वे अविद्यमान पर्यायें भी ज्ञान में प्रत्यक्ष ज्ञात होती हैं। ज्ञान का ऐसा ही स्वभाव है कि उसमें भूतकालीन विनष्ट पर्यायें और भविष्यकालीन अनुत्पन्न पर्यायें भी स्पष्ट झलकती हैं।
भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जएसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति ।। उत्पाद हो न अभाव का ना नाश हो सद्भाव में ।
उत्पाद-व्यय करते रहें सब द्रव्य गुण-पर्याय में ।। भाव का अर्थात् जो पदार्थ है, उसका नाश नहीं होता और अभाव का अर्थात् जो पदार्थ नहीं है, उसका उत्पाद नहीं होता । भाव अर्थात् सभी पदार्थ अपने गुण-पर्यायों का उत्पाद-व्यय करते हैं। तात्पर्य यह है कि सत् का कभी नाश नहीं होता और असत् का उत्पाद नहीं होता; पर सभी पदार्थों में प्रतिसमय परिणमन अवश्य होता रहता है।
जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं च णाणस्स । ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेति ।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो ।
फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो? ।। यदि अनुत्पन्न और विनष्ट पर्यायें सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रत्यक्ष ज्ञात न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा? सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान की दिव्यता ही इस बात में है कि उसमें भूत-भविष्य की पर्यायें भी प्रतिबिम्बित होती हैं।
(६२) अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म । सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं ।।
अरहंत-भासित ग्रथित-गणधर सूत्र से ही श्रमणजन ।
परमार्थ का साधन करें अध्ययन करो हे भव्यजन ।। अरहंत भगवान द्वारा कहा गया और गणधरदेव द्वारा भले प्रकार से गूंथा गया जो जिनागम है, वही सूत्र है। ऐसे सूत्रों के आधार पर श्रमणजन परमार्थ को साधते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनागम श्रमणों के लिए परमार्थसाधक हैं। ६०. प्रवचनसार, गाथा ३८
६१. प्रवचनसार, गाथा ३९ ६२. अष्टपाहुड : सूत्रपाहुड, गाथा १
तक्कालिगेव सव्वे सद सन्भूदा हि पज्जया तासिं। वट्ठन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ।।
असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब।
सद्ज्ञान में वर्तमानवत ही हैं सदा वर्तमान सब ।। जीवादि द्रव्य जातियों की समस्त विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायों की भाँति विशेष रूप से ज्ञान में झलकती हैं।
५८. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा १५
५७. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा १३ ५९. प्रवचनसार, गाथा ३७