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________________ (कुन्दकुन्दशतक कुन्दकुन्दशतक) (४८) आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।। निज आयुक्षय से मरण हो - यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं? ।। जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। परजीव तेरे आयुकर्म को तो हरते नहीं है तो उन्होंने तेरा मरण कैसे किया? अतः अपने मरण का दोष पर के माथे मढ़ना अज्ञान ही है। (४५) कम्मस्स य परिणाम णोकम्मस्स य तहेव परिणामं । ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।। करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को। जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हो सद्ज्ञान को ।। जो आत्मा कर्म के परिणाम को एवं नोकर्म के परिणाम को नहीं करता है; किन्तु मात्र जानता है, वह ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि परकर्त्तत्व का भाव अज्ञान है, क्योंकि ज्ञानभाव तो मात्र जाननरूप ही होता है। (४६) जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढ़ो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।। मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन। यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ।। जो जीव यह मानता है कि मैं पर-जीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ़ है, अज्ञानी है। इससे विपरीत मानने वाला ज्ञानी है । तात्पर्य यह है कि ज्ञानी यह मानता है कि न मैं किसी को मार सकता हूँ और न कोई मुझे मार सकता है। (४७) आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ।। निज आयुक्षय से मरण हो - यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं? ।। जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तुम परजीवों के आयुकर्म को तो हरते नहीं हो; फिर तुमने उनका मरण कैसे किया? - यह बात गंभीरता से विचार करने योग्य है। ४५. समयसार, गाथा ७५ ४६. समयसार, गाथा २४७ ४७. समयसार, गाथा २४८ जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढ़ो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।। मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन! ।। जो जीव यह मानता है कि मैं पर-जीवों को जिला (रक्षा करता) हूँ और पर-जीव मुझे जिलाते (रक्षा करते) हैं; वह मूढ़ है, अज्ञानी है और इसके विपरीत मानने वाला ज्ञानी है। तात्पर्य यह है कि एक जीव दूसरे जीव के जीवन-मरण और सुख-दुख का कर्ता-धर्ता नहीं है, अज्ञानी जीव व्यर्थ ही पर का कर्ता-धर्ता बनकर दुखी होता है। (५०) आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ।। सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किस तरह जब आयु दे सकते नहीं? || जीव आयुकर्म के उदय से जीता है - ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है। तुम परजीवों को आयुकर्म तो देते नहीं तो तुमने उनका जीवन (रक्षा) कैसे किया? ४८. समयसार, गाथा २४९ ४९. समयसार, गाथा २५० ५०. समयसार, गाथा २५१
SR No.008358
Book TitleKundkunda Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size83 KB
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