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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
क्रमबद्धपर्याय : प्रासंगिक प्रश्नोत्तर
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की मुख्यता से अपने स्व-रूप का निर्णय होता है, जिसमें वह द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव को यथावत् अर्थात् कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न जानता है। उसमें भी वह अभेद को मुख्य करके निजरूप तथा भेद को गौण करके पररूप जानता है । यही परमशुद्धनिश्चयनय अथवा परमभावग्राहीशुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय है। परन्तु नय में अपर पक्ष गौण रहता है, उसका निषेध नहीं होता; जबकि दृष्टि का स्वरूप निर्विकल्प प्रतीति मात्र है, उसमें मुख्य-गौण करने का स्वभाव ही नहीं है। दृष्टि में सदैव ज्ञायक ही मुख्य रहता है, उसमें पर्याय अर्थात् भेद नहीं है - इत्यादि सभी कथन ज्ञान की प्रधानता से दृष्टि के विषय को अस्ति-नास्ति से बताते हैं। प्रश्न ७. निम्न कारिक की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए?
अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतु द्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा ।
अनीश्वरोजन्तुरहंक्रियार्त्त :संहत्य कार्येष्वितिसाध्ववादी।। आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभूत स्तोत्र के ३३वें छन्द में उक्त कारिका के माध्यम से भवितव्यता की महिमा बनाई है।
वे कहते हैं कि भवितव्यता की शक्ति अलंघ्य है, अर्थात् कोई भी व्यक्ति भवितव्यता अर्थात् होने योग्य कार्य का उल्लंघन करके उस कार्य को होने से रोक नहीं सकता और उसके स्थान पर दूसरा कार्य नहीं कर सकता । जो होना है वही होगा अथवा जो हो रहा है वही होना था।
यदि कोई प्रश्न करे कि आप यह कैसे कह सकते हैं कि जो हो रहा है वही होना था? इसके समाधान के लिये ही आचार्यदेव ने हेतुद्वयाविष्कृत कार्यलिङ्गा' पद का प्रयोग किया है। हेतुद्वय अर्थात् उपादान और निमित्त अथवा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणों की सन्निधि में उत्पन्न होने वाला कार्य ही भवितव्यता को सूचित करता है । विवक्षित कार्य से बढ़कर और कौन सा प्रमाण हो सकता है कि यह होना था; क्योंकि वह तो प्रत्यक्ष में हो ही रहा है। यह निरीह संसारी प्राणी भवितव्यता के बिना अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी कार्य करने में समर्थ
नहीं होता, फिर भी मैं इस कार्य को कर सकता हैं - इस प्रकार के अहंकार से पीड़ित रहता है।
प्रश्न ८. जैन-दर्शन में अकर्त्तावाद के स्वरूप की व्याख्या कीजिए? उत्तर :- जैन-दर्शन में अकर्त्तावाद के मुख्य चार बिन्दु है। (१) ईश्वर इस जगत का कर्ता नहीं है (२) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की क्रिया का कर्ता नहीं है। (३) ज्ञानी अपने विकारी भावों का भी कर्ता नहीं है।
(४) द्रव्य अपनी पर्याय का कर्ता होने पर भी उनके क्रम में परिवर्तन का कर्ता नहीं है।
अकर्त्तावाद को निम्न तीन रूपों में भी व्यक्त किया जाता है।
(अ) स्वकर्त्तत्व :- प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों का कर्ता है, अन्य द्रव्य की पर्यायों का कर्त्ता नहीं है।
(ब) सहज कर्त्तत्व :- प्रत्येक द्रव्य परिणमन स्वभावी होने से उसमें प्रति समय नई-नई पर्यायें सहज ही अपने-आप उत्पन्न होती रहती हैं। इसके लिए उसे अलग से कुछ नहीं करना पड़ता।
(स) अकर्त्तत्व : प्रत्येक द्रव्य पर-द्रव्य और उनकी पर्यायों का तथा अपनी पर्यायों के क्रम में परिवर्तन का कर्त्ता नहीं है।
इसप्रकार जैन-दर्शन का अकर्त्तावाद मात्र ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व का खंडन नहीं करता, अपितु पर-द्रव्यों की पर्यायों तथा अपनी पर्यायों में परिवर्तन का भी निषेध करता है। द्रव्य अपनी पर्यायों का भी कर्ता नहीं है - इस अपेक्षा को क्रमबद्ध पर्याय प्रकरण में मुख्य नहीं किया गया है।
प्रश्न ९. ज्ञान की उत्पत्ति की व्यवस्था के सम्बन्ध में जैन-दर्शन और बौद्धदर्शन की मान्यताओं की तुलनात्मक मीमांसा कीजिए?
उत्तर :- जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञेय के अनुसार नहीं ज्ञान होता, अपितु ज्ञान के अनुसार ज्ञेय जाना जाता है। इसका आशय यह है कि जैसा ज्ञेय होगा वैसा ही