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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार के अनुसार कार्य की उत्पत्ति सर्वज्ञ के ज्ञान-अनुसार होगी इस कथन में भी कोई विरोध नहीं है। वे लिखते हैं कि सर्वज्ञ भगवान भवितव्यता के अनुसार होने वाले कार्य के साथ उसके सभी कारणों को भी जानते हैं; अतः एकान्त नियतिवाद या एकान्त भवितव्यता का प्रसंग नहीं आता।
पदार्थों का परिणमन सर्वज्ञ के ज्ञान के आधीन नहीं है, अपितु जैसा परिणमन होना है, वैसा ज्ञान योग्यतानुसार स्वयं होता है; इसलिए ज्ञान ज्ञेयाकार अर्थात् ज्ञेय के अनुसार है, ज्ञेय ज्ञानाकार नहीं है, अर्थात् ज्ञान के आधीन नहीं
___ पण्डित टोडरमलजी ने भी कषायों के अनुसार कार्य नहीं होता, अपितु भवितव्यता के अनुसार कार्य होता है - ऐसा कहकर कषाय को दुःख का कारण कहकर उसे छोड़ने की प्रेरणा दी है। यदि कषायों के अनुसार कार्य की उत्पत्ति होना माना जाए तो -
१. वस्तु का परिणमन कषाय के आधीन हो जाएगा, जिससे वस्तु के स्वतंत्र परिणमन की व्यवस्था खण्डित हो जाएगी।
२. किसी एक कार्य के सम्बन्ध में हर व्यक्ति की इच्छा अलग-अलग होती है। किसान चाहता है कि वर्षा हो और कुम्हार चाहता है कि वर्षा न हो। कोई व्यक्ति अपने शत्रु को हानि पहुँचाना चाहता है और उस कथित शत्रु का मित्र उसे लाभ पहुँचाना चाहता है। इसप्रकार परस्पर विरुद्ध इच्छाएँ होने से वस्तु के परिणमन का क्या नियम होगा? अतः कषायों के अनुसार कार्य की उत्पत्ति होना असम्भव है।
काललब्धि का महत्त्व :- तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि उन्हें केवलज्ञान होने के बाद भी ६६ दिन तक नहीं खिरी - यह घटना सर्वविदित है। इस सम्बन्ध में कषायपाहुड़ व धवला में दिये गए प्रश्नोत्तर रोचक तो हैं ही; काललब्धि का महत्व बताने वाले भी हैं।
६६ दिन तक दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरी? इसके उत्तर में पहले तो निमित्त की
क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन मुख्यता से उत्तर दिया गया कि गणधर नहीं थे। फिर सौधर्म इन्द्र ने गणधर को तत्काल उपस्थित क्यों नहीं किया? इस प्रश्न का उत्तर काललब्धि की मुख्यता से देते हुए सौधर्म इन्द्र जैसे शक्तिशाली व्यवस्थापक को भी 'असहाय' कह दिया है।
इसीप्रकार किसी भी घटना के सम्बन्ध में यदि यह प्रश्न किया जाए कि यह कार्य अभी क्यों हुआ? तो काललब्धि का विचार करने पर ही समाधान होता है। द्वितीय प्रश्न भी काल की तरफ से है कि सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधर को उपस्थित क्यों नहीं किया? इसलिए इसका उत्तर भी काल से दिया गया है?
हमारे दैनिक जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग बनते हैं कि किसी समस्या का समाधान सूझने पर हम महसूस करते हैं कि यह बात हमारे ख्याल में पहले क्यों नहीं आई? यदि पहले ही ऐसा कर लेते तो इतना समय व्यर्थ न जाता, काम भी न बिगड़ता? जब बहुत देर तक बस की प्रतीक्षा करने के बाद टैक्सी या ऑटो रिक्शे से जाने का निर्णय किया जाता है, तब यही विकल्प होता है कि पहले ही टैक्सी क्योंन कर ली? इत्यादि अनेक विकल्पों का समाधान यह काललब्धिही करती है।
निमित्ताधीन दृष्टिवाले काललब्धि पर ध्यान न देकर निमित्त को ही कर्ता मानकर कहते हैं कि जब निमित्त आया, तब कार्य हुआ? परन्तु यह प्रश्न तो निमित्त के बारे में भी खड़ा रहता है कि निमित्त तभी क्यों आया? पहले क्यों नहीं आया? इसका समाधान भी काललब्धि से ही होता है।
गहराई से विचार किया जाए तो निमित्त मिलने पर भी विवक्षित कार्य तुरन्त नहीं हो जाता है। पानी को अग्नि पर रखते ही वह तुरन्त गर्म क्यों नहीं होता? कुछ समय क्यों लगता है? गुरु का निमित्त मिलने पर भी ज्ञान तुरन्त क्यों नहीं हो जाता? उन्हें एक ही विषय को बार-बार क्यों समझाना पड़ता है? इत्यादि अनेक परिस्थितियाँ तत्समय की योग्यता अर्थात् काललब्धि के महत्व को स्पष्ट करती हैं।
उक्त प्रश्नोत्तर से वस्तुस्वरूप समझने का एक गम्भीर रहस्यात्मक सूत्र प्रगट होता है। लोक में घटित होनेवाली कोई भी घटना हो । वह क्यों हुई? ऐसा प्रश्न किया जाए, फिर उसका जो भी उत्तर हमारे ख्याल में आए उसमें भी
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