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________________ क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका बताया गया है? भवितव्यता के आधार से कर्तृत्व का निषेध गद्यांश १४ प्रसिद्ध तार्किक आचार्य.............. ..............भी नहीं टाल सकते हैं। (पृष्ठ २४ पैरा ३ से पृष्ठ २६ पैरा ६ तक) विचार बिन्दु : १. इस गद्यांश में स्वयंभू स्तोत्र, पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका, अध्यात्म रहस्य, मोक्षमार्ग प्रकाशक, और कषायपाहुड के आधार से भवितव्यता का उल्लेख करते हुए कर्तृत्व के अहंकार को छोड़ने की प्रेरणा दी गई है। २. पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार ने सर्वज्ञता और भवितव्यता में ज्ञानज्ञेय सम्बन्ध स्थापित करते हुए भी दोनों की स्वतंत्रता का निरूपण किया है। ३. आचार्यकल्प पण्डित प्रवर टोडरमलजी के कथनानुसार “इच्छानुसार कार्य होना भवितव्य के आधीन है, इच्छा के आधीन नहीं।" ४. कषायपाहुड व धवलाटीका में सौधर्म इन्द्र को भी काललब्धि के अभाव में गणधर को उपस्थित करने में असहाय बताया गया है। विशेष स्पष्टीकरण :- आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभू स्तोत्र में भवितव्यता का स्वरूप बताते हुए उसे "हेतुद्वय से उत्पन्न होनेवाला कार्य जिसका लिङ्ग हैं" इस विशेषण से सम्बोधित करते हुए उसकी शक्ति को अलंध्य कहा है, अतः उनका स्वरूप कुछ उदाहरण देते हुए संक्षेप में स्पष्ट कर देना चाहिए। नोट :- यहाँ उपादान और निमित्त को हेतुद्वय कहा है, अतः उनका स्वरूप कुछ उदाहरण देकर स्पष्ट कर देना चाहिए। उक्त कारिका में निम्न बिन्दु विशेषरूप से समझने योग्य हैं : १. अलंघ्य शक्तिर्भवितव्यतेयम् :- भवितव्यता अर्थात् होने योग्य कार्य या होनहार, उसकी शक्ति अलंघ्य है अर्थात् जो कार्य होना है, उसे कोई टाल नहीं सकता। टी.वी. पर दिखाए जानेवाले प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक क्रमबद्धपर्याय : एक अनुशीलन महाभारत में किसी पात्र को विदुर से यह कहते हुए दिखाया गया है - 'होनी को अनहोनी तो नहीं किया जा सकता विदुरजी!' तथाकथित धार्मिक कार्यक्रमों में भी अनेक बार यह बताया जाता है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सृष्टि नियंता शक्तियाँ भी विधि के विधान के अनुसार कार्य करने को विवश हैं। २. हेतु द्वयाविष्कृत :- यद्यपि प्रत्येक कार्य अपनी उपादानरूप शक्ति से तत्समय की योग्यतानुसार स्वयं उत्पन्न होता है, तथापि उससमय अनुकूल बाह्य पदार्थ अवश्य उपस्थित होते हैं, जिन्हें निमित्त कहा जाता है। इसप्रकार प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में निश्चय हेतु उपादान है, तथा व्यवहार हेतु निमित्त है। वहाँ उपादान और निमित्त अर्थात् कार्योत्पत्ति के निश्चय और व्यवहार कारणों की सन्धि स्थापित करते हुए प्रत्येक कार्य को हेतुद्वय अर्थात् दो प्रकार के हेतुओं से उत्पन्न होने वाला कहा गया है। ३. कार्यलिंङ्गा :- यह एक सामासिक शब्द है - इसका आशय है कि कार्य है लिङ्ग अर्थात् चिन्ह जिसका । यह भवितव्यता का विशेषण है इसलिए लिङ्ग शब्द को स्त्रीलिङ्ग में लिङ्ग रखा गया है। ४. लिङ्ग शब्द से आशय :- प्रत्येक कार्य हेतुद्वय से उत्पन्न होता है, और वह कार्य भवितव्यता का लिङ्ग अर्थात् ज्ञापक हेतु है। यहाँ कार्य को भवितव्यता का ज्ञापक या हेतु कहा गया है - इसमें बहुत गम्भीर रहस्य है। 'हेतु' शब्द उत्पत्ति के कारणों के अर्थ में भी होता है, परन्तु न्यायशास्त्र में 'हेतु' शब्द का प्रयोग ज्ञापक अर्थात् ज्ञान करानेवाले अर्थ में भी होता है। ‘हेतुद्वय से उत्पन्न होनेवाला कार्य इस वाक्यांश में हेतु शब्द उपादान और निमित्त कारणों के अर्थ में है और कार्यलिङ्गा में लिङ्ग शब्द ज्ञापक हेतु के अर्थ में है। अनुमान-प्रमाण के प्रकरण में हेतु को साध्य की सिद्धि करने वाला अर्थात् ज्ञान कराने वाला कहा गया है। जैन न्याय में ज्ञापक हेतु के २२ भेद बताए गए हैं। जब हम धुंआ देखकर अग्नि का ज्ञान करते हैं, तब अग्नि को साध्य और धुएँ को उसका साधन, हेतु या लिङ्ग कहा जाता है। ५. कार्य को भवितव्यता का ज्ञापक हेतु क्यों कहा गया है :- जब 25
SR No.008357
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size244 KB
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