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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ के क्षेत्र में अर्थात् प्रदेशों में नहीं जाना पड़ता; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में प्रमेयत्व (ज्ञेयत्व) गुण है। प्रमेयत्व गुण भी अपने क्षेत्र में रहते हुए भी जो भी जाने, उसके ज्ञेय बन सकते हैं; ऐसी ज्ञेय पदार्थों में भी सामर्थ्य है।
इस प्रकार ज्ञान अपने आत्मा में रहते हुए ही अपनी जानने की सामर्थ्य द्वारा, दूरवर्ती अथवा समीपवर्ती परज्ञेयों को भी अपनी ज्ञानपर्याय में जान लेता है; ऐसा ज्ञान का एवं ज्ञेयों का सहजस्वभाव है, दोनों में से किसी को भी कोई श्रम नहीं करना पड़ता। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। अन्य प्रकार से भी विचार करें तो अमूर्तिक आत्मा की जानने की क्रिया तो अपने प्रदेशों में होती है और ज्ञेय तो चेतन-अचेतन तथा मूर्तिक-अमूर्तिक सभी होते हैं; इसलिये अगर ज्ञेयों में जाकर ज्ञान को जानना पड़े तो मूर्तिक को जानने के लिये आत्मा को मूर्तिक एवं अचेतन को जानने के लिये अचेतन होना पड़ेगा; लेकिन ऐसा तो असम्भव है; अतः सभी प्रकार से निश्चित है कि ज्ञान की जानने की प्रक्रिया अपने क्षेत्रों में रहते हुए ही अपनी योग्यता से अपने में होती है, अर्थात् परज्ञेयों का ज्ञान भी अपनी ज्ञानपर्याय में ही, पर से निरपेक्ष रहते हुए होता है, ज्ञेयों में पहुँचकर अथवा उनके पास जाकर भी नहीं होता; क्योंकि जानने की सामर्थ्य तो ज्ञान में ही है।
प्रश्न - जानने की क्रिया ज्ञेय से निरपेक्ष रहते हुए कैसे हो जावेगी?
उत्तर - यहाँ निरपेक्ष कहने का तात्पर्य इतना ही है कि जानने की क्रिया का उपादान तो ज्ञान ही है, वह ज्ञान की ही पर्याय है, उसमें उपादान सामग्री तो अकेले ज्ञान की ही है; ज्ञेय का उसमें अंशमात्र भी नहीं है। जानने की क्रिया में ज्ञेय का कोई प्रकार का
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ योगदान-सहायता अथवा सहयोग भी नहीं होता, फिर भी निमित्तपने का योगदान अवश्य होता है। अर्थात् जाननक्रिया ने किसको जाना? इसका ज्ञान कराने का योगदान अर्थात् निमित्त तो ज्ञेय का अवश्य होता है। ऐसे जानने के सम्बन्ध को ही जिनवाणी में ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध के नाम से कहा जाता है। ऐसा सम्बन्ध ज्ञान का ज्ञेय के साथ अविनाभावी है, वह तो निगोद से लगाकर सिद्ध तक के सब जीवों को अनिवार्य रूप से रहता है। इसी को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी कहा जाता है। नैमित्तिक ऐसी जानने की क्रिया जो आत्मा में ही होती है, उसका कर्ता तो ज्ञान अर्थात् आत्मा ही है, निमित्त अर्थात् ज्ञेय नहीं। फिर भी उस समय ज्ञान का ज्ञेय कौन था, निमित्त के बिना उसका परिचय कराया जाना संभव नहीं होता।
और निमित्त-नैमित्तिक दोनों की पर्यायों का उत्पाद काल एक ही होता है, उनका अपने-अपने में अपनी-अपनी योग्यतानुसार परिणमन होते हुए भी समकाल प्रत्यासत्ति होने से दोनों का सम्बन्ध अविनाभावी बन जाता है। इसप्रकार ज्ञान की पर्याय का आकार उससमय किस ज्ञेय के आकार होकर परिणम रहा है इसका निर्णय सुगमता से हो जाता है। ऐसा सम्बन्ध तो ज्ञानी-अज्ञानी सिद्ध एवं संसारी सबको होता रहता है; क्योंकि ज्ञान किसी भी समय स्व एवं पर किसी को नहीं जाने ऐसा तो हो ही नहीं सकता।
प्रश्न - ज्ञान को ज्ञेयाकार कहने से ज्ञेय की अपेक्षा तो आती है, उसे निरपेक्ष कैसे कह सकते हैं?
उत्तर – निरपेक्ष कहने का अभिप्राय तो जानने की क्रिया में ज्ञेय का किसी प्रकार का योगदान होने का निषेध बताना था, निमित्तपने के सम्बन्ध का भी निषेध करना नहीं था। नैमित्तिक परिणमन में निमित्त का किसी प्रकार का योगदान नहीं होते हुए भी,