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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
इस प्रकार ज्ञान अर्थात् जानना आत्मा का ऐसा स्वभाव है जो आत्मा में ही मिलता है और अन्य द्रव्यों में नहीं मिलता तथा आत्मा निगोद में चला जावे अथवा सिद्धदशा प्राप्त करले उसका कहीं भी अभाव नहीं होता; इसलिये चेतना अर्थात् जानना आत्मा का मूल स्वभाव है, प्रधान भाव, परम भाव है । समयसार गाथा-२ की टीका में समय अर्थात् आत्मा का स्वरूप बताते हुये कहा है कि "यह जीव नामक पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ही समय में परिणमन भी करता है और जानता भी है; इसलिये वह समय है।" जीव के अतिरिक्त अन्य पदार्थ परिणमते तो हैं; किन्तु जानते नहीं हैं; जाननेवाला तो आत्मा ही है; इसलिये यह मूल स्वभाव प्रधान स्वभाव है। पूज्य श्रीकानजीस्वामी ने ज्ञान - ज्ञेय स्वभाव के पृष्ठ ८ पर कहा है कि "ज्ञायकपना आत्मा का परमभाव है, आत्मा का ज्ञान स्वभाव है वह अनादि-अनन्त जानने का ही कार्य करता है।" इसप्रकार आत्मा का ज्ञान स्वभाव सबसे महत्त्वपूर्ण और मुख्य स्वभाव है। इसका प्रयोजनभूतपना इससे भी सिद्ध होता है कि मृत्युकाल में आत्मा के शरीर में से निकलने पर ज्ञान क्रिया भी आत्मा के साथ चली जाती है और उसके अभाव में शरीर को, जिसकी जीवन भर सेवा की है वह भी जलाकर मिट्टी में मिला दिया जाता है; इसलिये आत्मा के जानने की प्रक्रिया अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आत्मा की शांति के लिये अत्यन्त प्रयोजनभूत है; इसलिये उसको समझकर निर्णय करने योग्य है; क्योंकि जानने क्रिया की विपरीतता ही पर के साथ संयोग का कारण बन जाती है और यथार्थता वीतरागता का कारण हो जाती है। प्रवचनसार गाथा १५५ की टीका में भी कहा है कि “वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग विशेष हैं।"
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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
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इसलिये ज्ञायक के लक्ष्य पूर्वक उस पर गंभीरता से और मनोयोग से विचार कर निर्णय करना चाहिये ।
यहाँ ज्ञान का अभिप्राय मात्र ज्ञान गुण का कार्य नहीं है; अपितु समग्र चेतना का कार्य है, चेतना में दर्शन एवं ज्ञान दोनों का समावेश रहता है। दर्शन का विषय अभेद सामान्य होता है और ज्ञान का विषय भेद - विशेष होते हैं। दोनों मिलकर सामान्य- विशेषात्मक चेतना का कार्य वह चेतना का परिणाम है। इस प्रकार समग्र चेतना के कार्य को यहाँ ज्ञान के नाम से कहा है।
ज्ञान का स्वभाव स्व पर प्रकाशक है। पर का अस्तित्व उसी के द्वारा सिद्ध होता है; यह सामर्थ्य ज्ञान के अतिरिक्त आत्मा
अनन्त गुणों में से किसी गुण में नहीं है। स्व और पर का ज्ञान युगपत् होता है; जैसे मुझे क्रोध आया, ऐसा बोलने में ही अव्यक्त रूप से क्रोध के साथ ही स्व का भी ज्ञान आ जाता है। समयसार परिशिष्ट के पृष्ठ ६६९ पर भी कहा है कि “इसलिये उसके ज्ञानमात्र एकभाव भी अन्तः पातनी (ज्ञानमात्र एक भाव के भीतर आ जाने वाली) वे अनन्तशक्तियाँ उछलती हैं।" इसप्रकार ज्ञानी - अज्ञानी सबको पर के साथ स्व का ज्ञान भी अव्यक्त रूप से वर्तता रहता है।
आत्मा की जानन क्रिया का कार्यक्षेत्र भी आत्मा के स्वयं के प्रदेश ही रहते हैं अर्थात् उसकी जानन क्रिया असंख्यात प्रदेशों में ही होती हैं; ज्ञान आत्मा का गुण है, उसका गुणी अर्थात् आत्मा के साथ तादात्म्य है। आत्मद्रव्य का परिणमन अपने प्रदेशों में ही होता है, उनमें ज्ञान भी सम्मिलित रहता है । इसप्रकार जानन क्रिया का स्व एवं पर को जानने का कार्य आत्मा के असंख्यप्रदेशों में रहते हुए होता है। इससे सिद्ध है कि परज्ञेयों को जानने के लिये ज्ञान को अपने प्रदेशों को छोड़कर ज्ञेय