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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
" तथा इस अवसर में जो जीव पुरुषार्थ से तत्त्वनिर्णय (ज्ञायक - अकर्तास्वभावी आत्मस्वरूप का निर्णय) करने में उपयोग लगाने का अभ्यास रखें, उनके विशुद्धता बढ़ेगी, उससे कर्मों की शक्ति हीन होगी, कुछ काल में अपने-आप दर्शनमोह का उपशम होगा, तब तत्त्वों की यथावत् प्रतीति आवेगी, सो इसका तो कर्तव्य तत्त्वनिर्णय का अभ्यास ही है । इसी से दर्शनमोह का उपशम तो स्वयमेव होता है, उसमें जीव का कुछ कर्तव्य नहीं है । "
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इतना समझाने के पश्चात् भी, जो जीव उपर्युक्त निर्णय करने में कर्म के उदय अथवा अन्य समवाय का बहाना लेकर उपयोग नहीं लगाता, उसका पुरुषार्थ जागृत करने के लिए पृष्ठ ३११ पर कहते हैं कि -
“और तत्त्व निर्णय करने में किसी कर्म का दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है। तुझे विषय कषायरूप ही रहना है; इसलिए झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी युक्ति किसलिए बनाए ? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थ से सिद्धि न होती जाने, तथापि पुरुषार्थ से उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा, इसलिए जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखी उत्कृष्ट कहता है। उसका स्वरूप पहिचानकर उसे हितरूप नहीं जानता । हित जानकर उसका उद्यम बनें सो न करे यह असंभव है।"
उपरोक्त कथन सुनकर भी जो जीव तत्त्व निर्णय हेतु पुरुषार्थ नहीं लगाते और अन्यत्र उपयोग लगाते हैं, उनके लिए पृष्ठ ३१२ पर कहा है कि :
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
"इसलिए जो विचार शक्ति सहित हो और जिसके रागादिक मंद हों - वह जीव पुरुषार्थ से उपदेशादिक के निमित्त से तत्त्वनिर्णयादि में उपयोग लगाए तो उसका उपयोग वहाँ लगे और तब उसका भला हो। यदि इस अवसर में भी तत्त्व निर्णय करने का पुरुषार्थ न करे, प्रमाद से काल गंवाये- या तो मंद रागादि सहित विषय-कषायों के कार्यों में ही प्रवर्ते या व्यवहार धर्म कार्यों में प्रवर्ते, तब अवसर तो चला जायेगा और संसार में ही भ्रमण होगा।"
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उक्त तत्त्व-निर्णय की महिमा बताते हुए पृष्ठ २६० पर कहते हैं कि :
"देखो ! तत्त्व - विचार की महिमा । तत्त्व-विचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अध्ययन करे, वृतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं और तत्त्व विचार वाला (आत्मस्वरूप का निर्णय करने वाला) इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है।"
उक्त कथनों से स्पष्ट है कि इस जीव को मोक्षमार्ग प्रगट करने के लिए, तत्त्वनिर्णय अर्थात् 'मैं ज्ञायक हूँ' ऐसा निर्णय करने का अभ्यास ही कार्यकारी है; अतः पात्र जीव को अन्य विकल्पों को छोड़कर, तत्त्वनिर्णय का अभ्यास करना चाहिए । इस ही से मोक्षमार्ग की प्रगटता संभव है ।
तत्त्वनिर्णय का अभिप्राय
तत्त्व से अभिप्राय “अकर्ता ज्ञायक स्वभावी आत्मा है" - ऐसा निर्णय करना ही तत्त्वनिर्णय है ।
नव तत्त्वों में, एक तत्त्व, जीव स्वयं भी तो है। सभी तत्त्वों में सारभूत और प्रयोजनभूत तत्त्व तो एक जीवतत्त्व ही है;